

आग,पानी,फूल,पत्ते और हवा रख जाऊँगा
मैं ही मैं हूँ
Sonia SahdevFOR LADIES |
Remember, good things always come in small packages, so it does not matter if you are short. The key is to make yourself appear taller by wearing the right kind of clothes. If you wish to wear skirts their length can be till the knee or above the knee length. Kurtas should end at or slightly above the knee. Tops with three-fourth sleeves can be worn. If you are wearing a saree, than better go for high heels. They will make you look tall.![]() |
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सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
भावार्थ:-पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
* साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
* मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
भावार्थ:-संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
* बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
भावार्थ:-विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥
* बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
भावार्थ:-(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
* अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
भावार्थ:-वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥
दोहा :
* सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
भावार्थ:-जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥
चौपाई :
* मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
भावार्थ:-इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥
* बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
भावार्थ:-वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥
* मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावार्थ:-उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
* बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥
* सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
भावार्थ:-दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
* बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
भावार्थ:-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
दोहा :
* बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
भावार्थ:-मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥
* संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
भावार्थ:-संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥

*Learn from the mistakes of others... you can't live long enough to make them all yourselves.
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
| Amit Chhibber | 10:28pm Nov 8 |

| Chandresh Upadhyay |

चित्र में -यागेश मेहता , अशोक लव,मेजर एस एस दत्ता, रायजादा बी डी बाली, जे सी बाली और श्री ओ पी मोहन
Neha Khanna November 03, 2011

प्रकृति एवं लोक आस्था का अनोखा त्योहार और व्रत हमारे देश में सूर्योपासना के लिए छठ पर्व के रूप में मनाया जाता है| सूर्य की उपासना से मनुष्य प्रत्येक प्रकार की बीमारी ( विशेष रूप से कुष्ट रोग) से मुक्ति पाता है तथा दीर्घकालिक जीवन प्राप्त करता है| यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है । पहली बार चैत्र माह में और दूसरी बार कार्तिक माह में । चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिक छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख सम्रिधि तथा मनोवांछित फलप्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है । ऐसी मान्यता है कि सूर्य देव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है| सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत">भारत के बिहार">बिहार, झारखण्ड">झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश">उत्तर प्रदेश और अब तो विश्वभर में विभिन्न क्षेत्रों में मनाया जाता है। प्रायः हिंदुओं द्वारा मनाए जाने वाले इस पर्व को मुस्लिम भाई बहनों सहित अन्य धर्मावलंवी भी मनाते देखे गए हैं।[ छठ व्रतके संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं; उनमें से एक कथाके अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएमें हार गए, तब द्रौपदीने छठ व्रत रखा । तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवोंको राजपाट वापस मिल गया । इस सम्बन्ध में छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या तालाब के किनारे यह पूजा की जाती है। लोक परंपराके अनुसार लोक मातृका षष्ठीकी पहली पूजा सूर्यने ही की थी । इसीलिये यह पर्व ‘सूर्यषष्ठी’ के नामसे विख्यात है। रामायण काल में सीता ने गंगा तट पर छठ पूजा की थी। एक मान्यता के अनुसार लंका">लंका विजय के बाद रामराज्य">रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम">राम और माता सीता">सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त किया था।एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण">कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है। प्राचीनकाल से अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए भारतीय स्त्रियां नियमित सूर्य पूजा करती थीं। दिवाली के ठीक छह दिन बाद मनाए जाने वाले छठ महापर्व का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य षष्ठी का व्रत करने का विधान है । अथर्ववेद में भी इस पर्व का उल्लेख है। यह ऐसा पूजा विधान है जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाभकारी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से की गई इस पूजा से मानव की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। छठ पूजा का संबंध हठयोग से भी है। जिसमें बिना भोजन ग्रहण किए हुए लगातार पानी में खड़ा रहना पड़ता है, जिससे शरीर के अशुद्ध जीवाणु परास्त हो जाते हैं। इसे करने वाली स्त्रियाँ एवम पुरुष धन-धान्य, संतान सुख तथा सुख-समृद्धि से परिपूर्ण रहती हैं। प्राचीन काल में इसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं। यह व्रत बडे नियम तथा निष्ठा से किया जाता है। इसमे तीन दिन के कठोर उपवास का विधान है । इस व्रत को करने वालों को पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करना पडता है। षष्ठी को निर्जल रहकर व्रत करना पडता है । षष्ठी को अस्त होते हुए सूर्य को विधिपूर्वक पूजा करके अर्घ्य दिया जाता है। सप्तमी के दिन प्रात:काल नदी या तालाब पर जाकर स्नान किया जाता है। सूर्योदय होते ही पानी में खड़े होकर अर्घ्य देकर जल ग्रहण करके व्रत को खोलते हैं। प्रथम अर्घ्यसे पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर षष्ठी देवीका आवाहन एवं पूजन करते हैं। पुनः प्रातः अर्घ्यके पूर्व षष्ठीदेवीका पूजन कर विसर्जन कर देते हैं। इसके लिए विशेष वैदिक मंत्रों से भगवान सूर्य का आवाहन नहीं किया जाता है बल्कि गावों देहातों में गाये जाने वाले गीतों और भजनों से भगवान भास्कर को प्रसन्न किया जाता है|मान्यता है कि पंचमीके सायंकाल से ही घरमें भगवती षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान् सूर्यके इस पावन व्रतमें शक्ति और ब्रह्म दोनोंकी उपासनाका फल एक साथ प्राप्त होता है । यह पर्व चार दिनोंका है । भैया दूजके तीसरे दिनसे यह आरंभ होता है । पहले दिन सैंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दूकी सब्जी प्रसादके रूपमें ली जाती है । अगले दिनसे उपवास आरंभ होता है । इस दिन रातमें खीर बनती है । व्रतधारी रात में यह प्रसाद लेते हैं । तीसरे दिन अस्ताचल सूर्य की अंतिम रश्मि को अर्घ्य अर्पण करते हैं । अंतिम दिन उगते हुए सूर्य की प्रथम रश्मि को अर्घ्य एवम दूध चढ़ाते हैं । इस पूजामें पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्ज्य है| मान्यता ऐसी भी है कि मन में कोई खोट अथवा विकार होने पर इसका प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकता है। इस पर्व को मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। ऐसी मान्यता है कि जबसे सृष्टि बनी, तभी से सूर्य वरदान के रूप में हमारे सामने हैं और तभी से उनका पूजन होता आ रहा है। प्राचीन काल में माया सभ्यता, आर्य, यूनानी, पारसी धर्म तथा और भी बहुत से धर्मो में भी सूर्य की उपासना की जाती थी| इस त्योहार का उद्देश्य घर-परिवार की सुख- समृद्धि और आरोग्यता पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र,पुत्री, दामाद एवम सेवक,सेविका की प्राप्ति सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से जुड़ा हुआ है।
ऐसी मान्यता है कि भगवान भास्कर की पूजा एवम अर्ध्य देते समय आदित्यह्रदय स्तोत्र का उच्चारण करना बहुत लाभदायक होता है| (राउरकेला ओडिशा )