पंद्रह-सोलह जून की वर्षा ने उत्तराखंड में जो विनाश-लीला की है, उसमें
हजारों व्यक्ति अपने प्राण गँवा चुके हैं. सैंकडों घर नदियों में बह गए
हैं. गाँवों के गाँवों का कोई आता-पता नहीं है. ज़िंदगी और मौत के बीच
संघर्ष करते हज़ारों लोग पहाड़ों के अनजान रास्तों में फंसे पड़े हैं. हज़ारों
पहाड़ों में भटक रहे हैं. मृत्यु का ऐसा तांडव अपने पीछे अनेक प्रश्न छोड़
गया है. संकट की इस घड़ी में स्वयं-सेवी संस्थाओं को आगे आना चाहिए.
विस्थापित हो चुके लोगों को फिर से बसाने के लिए, सड़कों के निर्माण के लिए,
संचार माध्यमों की बहाली के लिए, अपार धनराशि की आवश्यकता होगी. गावों और
नगरों में जो विनाश-लीला हुई उसके लिए स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं
द्वारा सेवा की आवश्कता होगी. सड़कों के निर्माण के पश्चात यह सबसे बड़ा
कार्य होगा. अभी भी इस विनाश-लीला का आकलन नहीं हो पाया है. विभिन्न
नगरों की संस्थाओं को आगे आकर विस्थापितों तक भोजन और पानी पहुँचाना सबसे
बड़ी आवश्कता बन चुकी है. भूखे-प्यासे स्थानीय निवासी सड़कों पर उतर आए हैं.
पर्यटकों की समस्याएँ स्थानीय निवासियों से भिन्न हैं. उनकी ओर भी तत्काल
ध्यान देने की आवश्यकता है. सारी उम्र की कमाई से बनाए माकन ज़मीन में धंस
गए हैं. कई टनों मलबे के नीचे दब गए हैं. कुछ मकानों में मलबा भर गया है.
अनेक लोगों की दुकानें बह गई हैं. कईयों की आजीविका के साधन नहीं रहे. ऐसी
भयावह स्थिति में मानवीयता की कारुणिक पुकार को सुनने की आवश्यकता है. केदारनाथ धाम के पुनरोत्थान के लिए भी धार्मिक संस्थाओं को आगे आना चाहिए.
वे धार्मिक संस्थाएं जो मदिरों के लिए अपार धनराशि दान में लेती हैं,
उन्हें आगे आना चाहिए. इस विनाश-लीला के लिए पहाड़ों पर अनेक कारणों से
बढ़ता बोझ है. तीर्थ-स्थल पिकनिक–स्पॉट बन गए हैं. पहाड़ों का दोहन हो रहा
है. पर्वतीय पर्यावरण की सुरक्षा की कोई नीति नहीं है. अवैध खनन और अवैध
निर्माण ने पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ दिया है. ये वे मुद्दे हैं जिन पर
अभी से चिंतन और क्रियान्वयन की आवयश्कता है. तत्काल आवश्यकता है लोगों की
जान बचाने की और उन तक भोजन पहुँचाने की. आशा है संकट की घड़ी में दानी
सज्जन आगे आएँगे और अपना कर्तव्य निभायेंगे.
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