Tuesday, May 4, 2010

कभी कभी मेरे दिल मे खयाल आता है/ साहिर लुधियानवी

कभी कभी मेरे दिल मे खयाल आता है
कि जिंदगी तेरे जुल्फ़ों की नर्म छाओं में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये रंज-ओ-गम की स्याही जो दिल पे छाई है
ये तिरागी जो मेरी जीस्त का मुकद्दर है
तेरी नजर की शुआँओं मे खो भी सकती थी

अजब न था कि मै ये बेगाना-ए-आलम हो कर
तेरे जमाल की रानाइयों में खो रहता
तेरा गुद्दाज बदन , तेरी नीमबाज आँखे
इन्ही हसीन फ़जाओं मे मै हो रहता

पुकारती मुझे जब तलखियाँ जमाने की
तेरे लबो से हलावत के घुंट पी लेता
हयात चीखती फ़िरती बरेहना-सर और मै
घनेरी जुल्फ़ों की छाओं मे छुप के जी लेता

मगर ये हो न सका
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नही, तेरा गम, तेरी जुस्तुजू भी नही
गुजर रही है कुछ इस तरह जिंदगी जैसे
इसे किसी सहारे की आरजू भी नही

जमाने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुजर रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुजारों से
मुहीब सोये मेरी सिमट भरते आते है
हयात-ओ-मौत के पर-हाल खार-जारों से

न कोई जदा , न मंजील, न रोशनी का सुराग
भटक रही है खयालों मे जिंदगी मेरी
इन्ही खयालों मे रह जाऊँगा कभी खो कर
मै जानता हूँ मेरे हम-नफ़स, मगर यूँ ही
कभी कभी मेरे दिल मे खयाल आता है

3 comments:

anandbahadur said...
This comment has been removed by the author.
anandbahadur said...

बहुत सारी गलतियां हैंं इस टेक्स्ट में।
मसलन, 'गुज़र रही है ख़यालों में ज़िन्दगी' की जगह 'गुज़र रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी' होना चाहिए।

anandbahadur said...

बहुत सारी गलतियां हैंं इस टेक्स्ट में।
मसलन, 'गुज़र रही है ख़यालों में ज़िन्दगी' की जगह 'गुज़र रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी' होना चाहिए।