योगी पुरुष को भोजन करने से पूर्व मौन धारण करके एक बार आचमन करके "प्राणाय स्वाहा" कह कर प्रथम ग्रास ग्रहण करे, फिर क्रमश: "अपानाय स्वाहा" कह... कर दूसरा ग्रास, " समानाय स्वाहा" कह कर तीसरा ग्रास "उदानाय स्वाहा" कहकर चौथा ग्रास, एवं वुआनाय कहकर पांचवां ग्रास भोजन करने के बाद शेष भोजन को इच्छानुसार भोजन करके तृप्त होवे! तत्पश्चात जल पीकर आचमन करके हृदय को स्पर्श कराना चाहिए!
अस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग, अलोभ एवं अहिंसा इन पाँचों महान व्रतों को धारण करते हुए अक्रोध, गुरुसेवा, पवित्रता, अल्पाहार एवं नित्य स्वाध्याय इन पांच नियमों को पालन करना चाहिए!
योगी पुरुष को ज्ञान की विविधता के चक्कर में न पड़कर सारभूत एवं कार्य की सिद्धि प्रदान करने वाले ज्ञान की ही उपासना करनी चाहिए! यह भी जानना है वह भी जानना है अर्थात अनेकों प्रकार के ज्ञान की प्रापी के चक्कर में पड़ने से हजारों वर्षों तक भटकना पड़ता है और ज्ञान की प्राप्ति कुछ भी नहीं होती! संग का त्याग करने वाला, अक्रोधी, अल्पाहारी,जितेन्द्रिय योगी को बुद्धि योग से दशेंद्रियों के द्वारों को बंद करके मन को ध्यान में स्थिर करना चाहिए! योगी पुरुषों को निर्जन व् एकांत स्थान, गुफा तथा वन में जाकर विधि पूर्वक ध्यान करना चाहिय्र! वाकदंड, कर्मदंड एवं मनोदंड को वश में रखने वाले यति को ही त्रिदंडी कहते हैं! इस सत-असत गुण-अवगुण रुपी इस संसार को जो योगी आत्ममय मानता है उसका न कोई अपना है न कोई पराया ही! जो विशुद्ध मन से सोने को भी मिटटी तुली मानता है तथा सब प्राणियों को एक समान भाव से देखता है तथा है तथा समस्त प्रानोयों में समाहित होकर सर्वत्र ही एक मात्र, सर्वाधार शाश्वत एवं अव्यय ब्रह्म को सर्वत्र विद्यमान देखता है! उस योगी का पुनर्जन्म नहीं होता! संसार में वेदों से भी श्रेष्ठ यज्ञा, यज्ञों से श्रेष्ट जप, जप से श्रेष्ठ ज्ञानमार्ग एवं ज्ञान से विषयासक्ति एवं रागविहीन होकर ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि ध्यान से शाश्वत ब्रह्म की प्राप्ति होती है! इसलिये सावधानी पूर्वक ब्रह्मपरायण, प्रमाद रहित, एकांतवासी और जितेन्द्रिय होकर ध्यान की साधना करता है वही आत्मा में आत्मा के संयोग से मोक्ष की प्राप्ति करता है! यही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन है! जो योगी इस मार्ग पर चल कर सफलता प्राप्त कर लेता है, उसके लिये संसार में कुछ भी शेष नहीं रह जाता!
योगी पुरुष को ज्ञान की विविधता के चक्कर में न पड़कर सारभूत एवं कार्य की सिद्धि प्रदान करने वाले ज्ञान की ही उपासना करनी चाहिए! यह भी जानना है वह भी जानना है अर्थात अनेकों प्रकार के ज्ञान की प्रापी के चक्कर में पड़ने से हजारों वर्षों तक भटकना पड़ता है और ज्ञान की प्राप्ति कुछ भी नहीं होती! संग का त्याग करने वाला, अक्रोधी, अल्पाहारी,जितेन्द्रिय योगी को बुद्धि योग से दशेंद्रियों के द्वारों को बंद करके मन को ध्यान में स्थिर करना चाहिए! योगी पुरुषों को निर्जन व् एकांत स्थान, गुफा तथा वन में जाकर विधि पूर्वक ध्यान करना चाहिय्र! वाकदंड, कर्मदंड एवं मनोदंड को वश में रखने वाले यति को ही त्रिदंडी कहते हैं! इस सत-असत गुण-अवगुण रुपी इस संसार को जो योगी आत्ममय मानता है उसका न कोई अपना है न कोई पराया ही! जो विशुद्ध मन से सोने को भी मिटटी तुली मानता है तथा सब प्राणियों को एक समान भाव से देखता है तथा है तथा समस्त प्रानोयों में समाहित होकर सर्वत्र ही एक मात्र, सर्वाधार शाश्वत एवं अव्यय ब्रह्म को सर्वत्र विद्यमान देखता है! उस योगी का पुनर्जन्म नहीं होता! संसार में वेदों से भी श्रेष्ठ यज्ञा, यज्ञों से श्रेष्ट जप, जप से श्रेष्ठ ज्ञानमार्ग एवं ज्ञान से विषयासक्ति एवं रागविहीन होकर ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि ध्यान से शाश्वत ब्रह्म की प्राप्ति होती है! इसलिये सावधानी पूर्वक ब्रह्मपरायण, प्रमाद रहित, एकांतवासी और जितेन्द्रिय होकर ध्यान की साधना करता है वही आत्मा में आत्मा के संयोग से मोक्ष की प्राप्ति करता है! यही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन है! जो योगी इस मार्ग पर चल कर सफलता प्राप्त कर लेता है, उसके लिये संसार में कुछ भी शेष नहीं रह जाता!
No comments:
Post a Comment