मनुष्य सामाजिक प्राणी है. वे समाज के बिना जी नहीं सकता . उसे किसी न किसी रूप में दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है. जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत वे पराश्रित रहता है. जन्म के साथ माँ उसका लालन-पालन करती है. पिता का स्नेह उसे संबल देता है. विद्यार्थी के रूप में अध्यापक-अध्यापिकाएँ उसे ज्ञानवान बनाते है. आजीविका के रूप में नौकरी करता है अथवा व्यापार , पराश्रित रहता है. नौकरी दूसरे के अधीन करनी पड़ती है . व्यापार में ग्राहकों पर निर्भर करना पड़ता है. बीमार होने पर डाक्टरों पर निर्भर रहना पड़ता है.
गहनता से चिंतन करें तो मनुष्य एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं.
इस दृष्टि से मनुष्य को हर पल दूसरों को धन्यवाद देना चाहिए.
बदलते मूल्यों और संस्कारों के कारण व्यक्ति दूसरों के किए उपकारों को भूलकर नितांत स्वार्थी होता जा रहा है. माता-पिता तक को नहीं पूछता. उसे केवल अपने स्वार्थ दिखते हैं . उसके स्वार्थ पूरे नहीं हुए तो झट रूप बदल लेता है. यदि कोई व्यक्ति किसी के सौ में से निन्यानवे कार्य कर देता है पर एक नहीं करता तो वह बौखला जाता है. अनर्गल प्रलाप करने लगता है. संबंधों को तार-तार कर देता है. वे उन निन्यानवे कार्यों को भुला देता है.
हमारी वैदिक और पौराणिक परम्परा रही है कि हम देव ऋण उतारने के लिए देवताओं को पूजते हैं. सूर्य हमें प्रकाश देता है तो उन्हें जल अर्पित करने का प्रावधान किया गया. इसी तरह चन्द्र,मंगल,बुध, बृहस्पति,शुक्र और शनि ग्रहों क़ी पूजा क़ी जाती है. देवी-देवताओं क़ी पूजा क़ी जाती है. मातृ ऋण, गुरु ऋण आदि ऋण जन्म के साथ हमारे साथ जुड़ जाते हैं. हमारे पूर्वजों ने इसके विधि-विधान निर्धारित किए थे. ये धन्यवाद के ही रूप थे.
' धन्यवाद ' देना मनुष्य क़ी विनम्रता का प्रतीक है. इससे उसके संस्कारों का पता चलता है. यह शिष्टाचार का अनिवार्य अंग भी है. पश्चिमी देशों में लोग किए गए कार्य के लिए तत्काल धन्यवाद देते हैं. जीवन में अच्छे कार्यों क़ी आदत कभी भी आरम्भ क़ी जा सकती है. ' धन्यवाद' देने क़ी आदत आज और अभी से डाल लेनी चाहिए.
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