Friday, December 23, 2011
विदाई की उदासियाँ
आहटें सुनाई देने लगी हैं अब, दो हज़ार बारह की
विदाई की उदासियाँ दिख रही हैं, दो हज़ार ग्यारह की।
--अशोक लव
Saturday, December 17, 2011
Rig Ved to the Search Of God :Vivek Sharma
Rig Veda to particle physics
By G.S. Mudur | www.telegraphindia.com – Wed, Dec 14, 2011New Delhi, Dec. 13: Physicist Vivek Sharma who was born in Muzaffarpur, Bihar, and now leads an international group hunting for the Higgs boson sees the search as an attempt to seek out answers to questions posed in the Rig Veda.
Sharma, who went to a Kendriya Vidyalaya in Pune and pursued master's in physics at the Indian Institute of Technology, Kanpur, says he was drawn to experimental particle physics after learning Rig Veda hymns from his mother, a Sanskrit scholar. The ancient text has a hymn on creation that speculates on the origin of the universe and describes a period when "all that existed was void and formless".
"It was a shock, it left an impression in my mind. Thousands of years ago people were contemplating our origins," said Sharma, a professor at the University of California, San Diego, and head of a Higgs search team at CERN, the European research laboratory.
He was still a high school student but began thinking how modern technology might be used to probe creation. The Higgs boson, the subatomic particle that Sharma and his colleagues are looking for, was predicted in the 1960s to explain the origin of mass.
A discovery of the Higgs boson is important for physicists because it is the last missing, or unseen, piece of a bedrock theory of physics called the Standard Model that explains all the forces and particles in nature except gravity.
Sharma moved to the US in 1984, treating higher studies in the US as a route to plunge into experimental physics requiring expensive machines ' particle accelerators ' but spent five years at CERN in the early 1990s where he discovered two new subatomic particles, including a cousin of the proton, but five times heavier.
His enthusiasm for experimental physics emerges in his talks ' whether delivered to fellow-physicists or aspiring students. It also appears to temper any emotions that might spring each time particle detectors at CERN spot signals resembling traces of the Higgs boson.
"Experiments will ultimately tell us what is right and what is wrong," he said. In the coming months, Sharma and his colleagues will refine their analyses and combine the data from the two main particle detectors looking for the Higgs boson.
"Our curiosity about our origins doesn't change anybody's life, but there is a satisfaction from understanding such things," Sharma said in a telephone interview ahead of the CERN seminar where scientists presented their latest results from the Higgs search.
"But when we build machines like the Large Hadron Collider (the particle accelerator at CERN where proton-proton collisions are used to search for the Higgs boson), it requires us to invent new technologies that can change people's lives," he said.
The World Wide Web was created at CERN to help physicists move data around between different computers in a seamless fashion. "It's a great example of how something that is good for physicists turned out to be fantastic for the public," Sharma said.
New technologies and ideas that are born in experimental physics laboratories may have implications in information technology and medicine. "Our goals are esoteric, but what sometimes comes out benefits the public," he said.
Friday, December 16, 2011
श्रीमती राजरानी वैद का निधन
Wednesday, December 14, 2011
हजरत इमाम हुसैन
पेश ऐ खिदमत है विश्वनाथ प्रसाद साहेब माथुर * लखनवी का १३८३ हिजरी मैं लिखा यह मशहूर लेख़।
हुसैन और भारत विश्वनाथ प्रसाद साहेब माथुर * लखनवी मुहर्रम , १३८३ हिजरी
आँख में उनकी जगह , दिल में मकां शब्बीर का
यह ज़मीं शब्बीर की , यह आसमान शब्बीर का
जब से आने को कहा था , कर्बला से हिंद में
हो गया उस रोज़ से , हिन्दोस्तान शब्बीर का
माथुर * लखनवी
पेश लफ्ज़
अगर चे इस मौजू या उन्वान के तहत मुताद्दिद मज़ामीन , दर्जनों नज्में ,और बेशुमार रिसाले शाया हो चुके हैं , लेकिन यह मौजू अपनी अहमियत के लिहाज़ से मेरे नाचीज़ ख्याल में अभी तश्न ए फ़िक्र ओ नज़र है . इस लिए इस रिसाले का उन्वान भी मैं ने ” हुसैन और भारत ” रखा है और मुझे यकीन है के नाज़रीन इसे ज़रूर पसंद फरमाएं गे।
नाचीज़ ,
माथुर * लखनवी
इराक और भारत का ज़ाहिरी फासला तो हज़ारों मील,का है. अगर चे इस फासले को मौजूदा ज़माने की तेज़ रफ़्तार सवारियों ने बहोत कुछ आसान कर दिया है , लेकिन सफ़र की यह सहूलतें आज से १३२२ बरस पहले मौजूद ना थीं।
मुहर्रम ६१ हिजरी . में हजरत मोहम्मद साहेब के छोटे नवासे हजरत इमाम हुसैन ने भारत की सरज़मीन पर आने का इरादा फ़रमाया था , और उन्होंने अपने दुश्मन यज़ीद की टिड्डी दल फ़ौज के सिपह सालार उमर इब्ने साद से अपनी चंद शर्तों के नामंज़ूर होने के बाद यह कहा था के अगर मेरी किसी और शर्त पर राज़ी नहीं है तो मुझे छोड़ दे ताकि मैं भारत चला जाऊं।
मैं अक्सर यह ग़ौर करता रहता हूँ के तेरह सौ साल पहले जो सफ़र की दुश्वारियां हो सकती थीं , उनको पेशे नज़र रखते हुए हजरत इमाम हुसैन का भारत की सरज़मीन की जानिब आने का क़स्द (इरादा ) करना , और यह जानते हुए के ना तो उस वक़्त तक फ़ातेहे सिंध , मुहम्मद . बिन क़ासिम पैदा हुआ था , और ना हम हिन्दुओं के मंदिरों को मिस्मार करने वाला महमूद ग़ज़नवी ही आलमे वुजूद में आया था . न उस वक़्त भारत में कोई मस्जिद बनी थी और ना अज़ान की आवाज़ बुलंद हुई थी , बल्कि एक भी मुसलमान तिजारत या सन’अत ओ हिर्फ़त की बुनियाद पर भी यहाँ ना आ सका था , ना मौजूद था . उस वक़्त तो भारत में सिर्फ चंद ही कौमें आबाद थीं , जो बुनियादी तौर से हिन्दू मज़हब से ही मुताल्लिक हो सकती हैं . मगर इन् तमाम हालात का अंदाजा करने के बाद भी के भारत में कोई मुसलमान मौजूद नहीं है , हजरत इमाम हुसैन ने उमर ए साद से क्यों यह फरमाया के मुझे भारत चला जाने दे ।
अगरचे हज़रत इमाम हुसैन की शहादत से पहले किसी ना किसी तरह सरज़मीने ईरान तक इस्लाम पहुँच चुका था , और सिर्फ ईरान ही पर मुनहसिर नहीं है , बल्कि हबश को छोडकर जहाँ हजरत अली के छोटे भाई जाफ़र ए तय्यार कुरान और इस्लाम का पैग़ाम लेकर गए थे। दीगर मुल्क भी ईरान की तरह जंग ओ जदल के बाद उसवक्त की इस्लामी सल्तनत के मातहत आ चुके थे। जैसे के मिस्र वा शाम वगैरह , इसलिए हजरत इमाम हुसैन के लिए भारत के सफ़र की दुश्वारियां सामने रखते हुए यह ज़्यादा आसान था के वो ईरान चले जाते , या मिस्र ओ शाम जाने का इरादा करते , मगर उनहोंने ऎसी किसी तमन्ना का इज़हार नहीं किया , सिर्फ भारत का नाम ही उनकी प्यासी जुबां पर आया।
खुसूसियत से हबश जाने की तमन्ना करना हजरत इमाम हुसैन के लिए ज्यादा आसान था , क्यूंकि ना सिर्फ बादशाहे हबश और उसके दरबारी इस्लाम कुबूल कर चुके थे बल्कि हजरत इमाम हुसैन के हकीकी चाचा हजरत जाफ़र के इखलाक वा मोहब्बत से बादशाहे हबश ज्यादा मुतास्सिर भी हो चुका था . यहाँ तक के उसने खुद्द हजरत जाफ़र के ज़रिये से भी और उनके बाद मुख्तलिफ ज़राएय से रसूले इस्लाम और हजरत अली की खिदमत में बहुत कुछ तोहफे भी रवाना किये थे , बलके वाकेआत यह बताते हैं के ख़त ओ किताबत भी बादशाहे हबश से होती रहती थी ।
दूसरा सबब हबश जाने की तमन्ना का यह भी हो सकता था के उसवक्त जितनी दिक्क़तें हबश का सफ़र करने के सिलसिले में इमाम हुसैन को पेश आतीं , वो इससे बहोत कम होतीं जो हिन्दोस्तान के सफ़र के सिलसिले में ख्याल की जा सकती थीं . मगर हबश की सहूलतों को नज़र अंदाज़ करने के बाद हजरत इमाम हुसैन किसी भी गैर मुस्लिम मुल्क जाने का इरादा नहीं करते , बल्कि उस हिन्दोस्तान की जानिब उनका नूरानी दिल खींचता हुआ नज़र आता है , जहाँ उसवक्त एक भी मुसलमान ना था . आखिर क्यों ? येही वो सवाल है जो बार बार मेरे दिमाग के रौज़नों में अकीदत की रौशनी को तेज़ करता है , और अपनी जगह पर मैं इस फैसले पर अटल हो जाता हूँ के जिस तरह से हिन्दोस्तान वालों को हजरत इमाम हुसैन से मोहब्बत होने वाली थी उसी तरह इमाम हुसैन के दिल में हम लोगों की मोहब्बत मौजूद थी।
karbala
मोहब्बत वो फितरी जज्बा है जो दिल में किसी की सिफारिश के बग़ैर ख़ुद ब ख़ुद पैदा होता है , और कम अज कम मैं उस मज़हब का क़ायल नहीं हो सकता , या उस मोहब्बत पर ईमान नहीं ला सकता जिसका ताल्लुक जबरी हो . दुनिया में सैकड़ों ही मज़हब हैं , और हर मज़हब का सुधारक यह दावा करता है के उसी का मज़हब हक है , और यह फैसला क़यामत से पहले दुनिया की निगाहों के सामने आना मुमकिन नहीं है , के कौन सा मज़हब हक है . लेकिन चाहे चंद मज़हब हक हों , या एक मज़हब हक हो , हम को इससे ग़रज़ नहीं है , हम तो सिर्फ मोहब्बत ही को हक जानते हैं ,और शायद इसी लिए दुनिया के बड़े बड़े पैग़ंबरों और ऋषियों ने मोहब्बत ही की तालीम दी है ।
मोहब्बत का मेयार भी हर दिल में यकसां नहीं होता , मोहब्बत एक हैवान को दुसरे हैवान से भी होती है , और इंसानों में भी मोहब्बतों के अक्साम का कोई शुमार नहीं है , माँ को बेटे से और बेटे को माँ से मोहब्बत होती है , बहन को भाई से और भाई को बहन से मोहब्बत होती है , चाचा को भतीजे से और भतीजे को चाचा से , बाप को बेटे से और बेटे को बाप से मोहब्बत होती है . इन् तमाम मोहब्बतों का सिलसिला नस्बी रिश्तों से मुंसलिक होता है . लेकिन ऎसी भी मोहब्बतें दुनिया में मौजूद हैं , जो शौहर को ज़ौजा से और ज़ौजा को शौहर से होती है , या एक दोस्त को दूसरे दोस्त से होती है , इन् सब मोहब्बतों का इन्हेसार सबब या असबाब पर होता है . मगर वो मोहब्बतें इन् तमाम मोहब्बतों से बुलंद होती हैं , जो इंसानियत के बुलंद तबके में पाई जाती हैं , मसलन पैग़म्बर नूह को अपनी कश्ती से मोहब्बत , या हजरत इब्राहीम को अपने बेटे इस्माइल से मोहब्बत , या हजरत मोहम्मद (स) को अपनी उम्मत से मोहब्बत , यह तमाम मोहब्बतें उस मेयार से बहोत ऊंची होती हैं , जो आम सतेह के इंसानों में पाई जाती हैं . लिहाज़ा यह मानना पढ़ेगा के हजरत इमाम हुसैन के दिल में हिन्दोस्तान और उसके रहने वालों की जो मोहब्बत थी , वो उसी बुलंद मेयार से ता’अलुक रखती है जो पैग़म्बरे इस्लाम हजरत मोहम्मद साहेब को अपनी उम्मत से हो सकती हो , क्योंके अगर यह मोहब्बत आला मेयार की ना होती तो उसका वजूद वक्ती होता , या उस अहद से शुरू होती , जब से इस्लाम हिन्दोस्तान में आया . जब हम ग़ौर करते हैं तो यह मालुम होता है के हजरत इमाम हुसैन की मोहब्बत का लामुतनाही सिलसिला १३२२ बरस पहले से रोज़े आशूर शरू होता है , और यह सिलसिला उसवक्त तक बाक़ी रहने का यकीन है जब तक दुनिया और खुद हिन्दोस्तान का वजूद है ।
ये बात भी इंसान की फितरत तस्लीम कर चुकी है के रूहानी पेशवा जितने भी होते हैं उनमें से अक्सर को ना सिर्फ गुज़रे हुए वाकेअत का इल्म होता है , बल्कि आइंदा पेश आने वाले हालात भी उनकी निगाहों के सामने रहते हैं ।
हजरत इमाम हुसैन का भी ऐसी ही बुलंद हस्तियों में शुमार है , जिनको आइंदा ज़माने के वाकेआत वा हालात का मुकम्मल तौर से इल्म था , और इसी बिना पर वो जानते थे के उनके चाहने वाले हिन्दोस्तान में ज़रूर पैदा होंगे . जैसा के उनका ख्याल था , वो होकर रहा , और यहाँ इस्लाम के आने से पहले हिमालय की सर्बुलंद चोटियों पर “ हुसैन पोथी “ पढ़ी जाने लगी . ज़ाहिर है के जब मुस्लमान सरज़मीं इ भारत पर आए नहीं थे। '
उस वक़्त हुसैन की पोथी पढ़ने वाले सिवाए हिन्दुओं के और कौन हो सकता है ? हो सकता है के उसी वक़्त से सर ज़मीन ए हिंदोस्तान पर हुस्सैनी ब्रह्मण नज़र आने लगे हों , जिनका सिलसिला अब तक जारी है , बल्की यह तमाम ब्रह्मण मज्हबन हिन्दू मज़हब के मानने वाले होते हैं सदियों से , लेकिन मोहब्बत के उसूल पर वो हुसैन की तालीम को बहोत अहमियत देते हैं . यूं तो हुस्सैनी ब्रह्मण पूरे मुल्क में दिखाई देते हैं , मगर खुसूसियत से जम्मू और कश्मीर के इलाके में इनलोगों की कसीर आबादी है , जो हमावक़्त हुस्सैनी तालीम पर अमल पैर होना सबब ए फ़ख़्र जानते हैं ।
लिहाज़ा यह तस्लीम कर्म पढ़ेगा के हजरत इमाम हुसैन को हिन्दोस्तान और उसके रहने वालों से जो मोहब्बत थी , वो न सिर्फ हकीकत पर मबनी कही जा सकती है , बलके उनकी मोहब्बत के असरात उनकी शहादत के कुछ ही अरसे बाद से दिलों में नुशुओनुम पाने लगे . हम नहीं कह सकते के इमाम हुसैन की मोहब्बत को और उनके ग़म को हिन्दोस्तान में लेने वाला कौन था , जबके (यहाँ ) मुसलामानों का उसवक्त वजूद ही नहीं था , लिहाज़ा यह भी मानना पढ़ेगा के इमाम हुसैन के ग़म को या उनकी मोहब्बत को सरज़मीने हिन्दोस्तान पर पहुँचाने वाली वोही गैबी ताक़त थी , जिसने उनके ग़म में आसमानों को खून के आंसुओं से अश्कबार किया , और फ़ज़ाओं से या हुसैन की सदाओं को बुलंद कराया ।
और अब तो हुसैन की अज़मत , उनकी शख्सीयत और उनकी बेपनाह मोहब्बत का क्या कहना . हर शख्स अपने दिमाग से समझ रहा है , अपने दिल से जान रहा है , और अपनी आँखों से देख रहा है , के सिर्फ मुसलमान ही मुहर्रम में उनका ग़म नहीं मानते , बल्कि हिन्दू भी ग़म ए हुसैन में अजादार होकर इसका सुबूत देते हैं के अगर इमाम हुसैन ने आशूर के दिन हिन्दोस्तान आने का इरादा ज़ाहिर किया था , तो हम हिन्दुओं के दिल में भी उनकी मोहब्बत के जवाबी असरात नुमायाँ होकर रहते हैं ।
मुहर्रम का चाँद देखते ही , ना सिर्फ ग़रीबों के दिल और आँखें ग़म ऐ हुसैन से छलक उठती हैं , बल्कि हिन्दुओं की बड़ी बड़ी शख्सियतें भी बारगाहे हुस्सैनी में ख़ेराज ए अक़ीदत पेश किये बग़ैर नहीं रहतीं । अब तो खैर हिन्दोस्तान में खुद मुख्तार रियासतों का वजूद ही नहीं रहा , लेकिन बीस बरस क़ब्ल तक , ग्वालियर की अज़ादारी और महाराज ग्वालियर की इमाम हुसैन से अकीदत इम्तेयाज़ी हैसियत रखती थी ।
अगर चे मुहर्रम अब भी ग्वालियर में शान ओ शौकत के साथ मनाया जाता है , और सिर्फ ग्वालियर ही पर मुन्हसिर नहीं है इंदौर का मुहर्रम और वहां का ऊंचा और वजनी ताज़िया दुनिया के गोशे गोशे में शोहरत रखता है . हैदराबाद और जुनूबी हिन्दोस्तान में आशूर की रात को हुसैन के अकीदतमंद आग पर चल कर मोहब्बत का इज़हार करते है , वहां अब भी एक महाराज हैं जो सब्ज़ लिबास पहन कर , और अलम हाथ में लेकर जब तक दहेकते ही अंगारों पर दूल्हा दूल्हा कहते ही क़दम नहीं बढ़ाते , तब तक कोई मुस्लमान अज़ादार आग पर पैर नहीं रख सकता। यह क्या बात है हम नहीं जानते , और हुसैन के मुताल्लिक़ बहुत सी बातें ऐसी हैं जिसको चाहे अक्ल ना भी तस्लीम करती हो , मगर निगाहें बराबर दिखती रहती हैं । यानी अगर हजरत इमाम हुसैन के ग़म या उनकी अज़ादारी में गैबी ताक़त ना शामिल होती तो वो करामातें दुनिया ना देख सकती जो हर साल मुहर्रम में दिखती रहती है . अगर आज सिगरेट सुलगाने में दियासलाई का चटका ऊँगली में लग जाता है तो छाला पढ़े बग़ैर नहीं रहता , इस लिए के आग का काम जला देना ही होता है , मगर दहकते हुए अंगारों पर हुसैन का नाम लेने के बाद रास्ता चलना और पांव का ना जलना , या छाले ना पढ़ना , हुसैन की करामत नहीं तो और क्या है ?
इससे इनकार नहीं किया जा सकता के हमारे भारत में इराक से कम अज़ादारी नहीं होती , यह सब कुछ क्या है ? उसी हुसैन की मोहब्बत का करिश्मा और असरात हैं , जिसने अपनी शहादत के दिन हिन्दोस्तान आने का इरादा ज़ाहिर किया था ।
दुनिया के हर मज़हब में मुक़्तदिर शख्सियतें गुजरी हैं , और किसी मज़हब का दामन ऐसी बुलंद ओ बाला हस्तियों से ख़ाली नहीं है जिनकी अजमत बहार तौर मानना ही पढ़ती है। जैसे के ईसाईयों के हजरत ईसा , या यहूदियों के हजरत मूसा . मगर जितनी मजाहेब की जितनी भी काबिले अजमत हस्तियाँ होती हैं , उनको सिर्फ उसी मज़हब वाले अपना पेशवा मानते हैं , जिस मज़हब में वो होती हैं । अगर चे एहतराम हर मज़हब के ऋषियों , पेशवाओं , पैग़ंबरों का हर शख्स करता है । लेकिन इस हकीकत से चाहे हजरत इमाम हुसैन के दुश्मन चश्म पोशी कर लें , मगर हम लोग यह कहे बग़ैर नहीं रह सकते के हजरत इमाम हुसैन की बैनुल अक़वामी हैसियत और उनकी ज़ात से , बग़ैर इम्तियाज़े मज्हबो मिल्लत हर शख्स को इतनी इतनी गहरी मोहब्बत है , जितनी के किसी को किसी से नहीं है . ऐसा क्यूँ है , हम नहीं कह सकते , क्यूँ के बहुत सी बातें ऐसी भी होती हैं जो ज़बान तक नहीं आ सकती हैं , मगर दिल उनको ज़रूर महसूस कर लेता है ।
आप दुनिया की किसी भी पढ़ी लिखी शख्सियत से अगर इमाम हुसैन के मुताल्लिक़ दरयाफ्त करेंगे तो वो इस बात का इकरार किये बग़ैर नहीं रह सकेगा के यकीनन हुसैन अपने नज़रियात में तनहा हैं , और उनकी अजमत को तस्लीम करने वाली दुनिया की हर कौम , और दुनिया का हर मज़हब , और उसके तालीम याफ्ता अफराद हैं ।
एक बात मेरी समझ में और भी आती है , और वो यह के हिन्दोस्तान चूंके मुख्तलिफ मज़हब के मानने वालों का मरकज़ है , और इमाम हुसैन की शख्सियत में ऐसा जज्बा पाया जाता है , के हर कौम उनको खिराजे अकीदत पेश करना अपना फ़र्ज़ जानती है। और यह मैं पहले ही अर्ज़ कर चुक्का हूँ के हजरत इमाम हुसैन चूंकि आने वाले वाकेआत का इल्म रखते थे , इसलिए वो ज़रूर जानते होंगे के एक ज़माना वो आने वाला है के जब भारत की सरज़मीन पर दुनिया के तमाम मज़हब के मानने वाले आबाद होंगे . इसलिए हुसैन चाहते थे के दुनिया की हर कौम के अफराद यह समझ लें के उनकी मुसीबतें और परेशानियाँ ऐसी थीं जिनसे हर इंसान को फितरी लगाव पैदा हो सकता है , ख्वाह उसका ता’अल्लुक़ किसी मज़हब से क्यूँ ना हो ।
इसी तरह यज़ीद के ज़ुल्म ओ जौर और उसके बदनाम किरदार को भी उसके बेपनाह मज़ालिम की मौजूदगी में समझा जा सकता है . चुनांचे हकीकत तो वोही होती है जिसको दुनिया का हर वो शख्स तस्लीम करे जिसका ताअल्लुक़ ख्वाह किसी मज़हब से हो। लिहाज़ा हिन्दोस्तान में चूंके हर कौम ओ मज़हब में इन्साफ पसंद हजरात की कमी नहीं है , इसलिए हो सकता है के हजरत इमाम हुसैन ने इसी मकसद को पेश ऐ नज़र रखते हुए यह इरशाद फ़रमाया हो के वो हिन्दोस्तान जाने का इरादा रखते हैं। अगर चे उनकी तमन्ना पूरी ना हो सकी , लेकिन मशीयत का यह मकसद ज़रूर पूरा हो गया के हिन्दोस्तान की सरज़मीन पर रहने वाले बगैरे इम्तियाज़े मज़हब , इमाम हुसैन को मोहब्बत ओ अकीदत के मोती निछावर करते रहते हैं और करते रहेंगे ।
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Ashok Lav
Friday, December 9, 2011
सिख धर्म के सम्बन्ध में जानकारियाँ
1 ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬ ਜੀ - गुरु नानक साहिब जी
2 ਗੁਰੂ ਅੰਗਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ - गुरु अंगद साहिब जी
3 ਗੁਰੂ ਅਮਰਦਾਸ ਸਾਹਿਬ ਜੀ - गुरु अमरदास साहिब जी
4 ਗੁਰੂ ਰਾਮਦਾਸ ਸਾਹਿਬ ਜੀ - गुरु रामदास साहिब जी
5 ਗੁਰੂ ਅਰਜੁਨ ਸਾਹਿਬ ਜੀ -अगुरु अर्जुन साहिब जी
6 ਗੁਰੂ ਹਰਿਗੋਬਿੰਦ ਸਾਹਿਬ ਜੀ - गुरु हरिगोबिंद साहिब जी
7 ਗੁਰੂ ਹਰਿਰਾਇ ਸਾਹਿਬ ਜੀ--गुरु हरिराय साहिब जी
8 ਗੁਰੂ ਹਰਿਕ੍ਰਿਸ਼ਨ ਸਾਹਿਬ ਜੀ--गुरु हरिकिशन साहिब जी
9 ਗੁਰੂ ਤੇਗ ਬਹਾਦਰ ਸਾਹਿਬ ਜੀ--गुरु तेगबहादुर साहिब जी
10 ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਸਾਹਿਬ ਜੀ--गुरु गोबिंद साहिब जी
ਚਾਰ ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦੇ--चार साहिबजादे
1 ਸਾਹਿਬ ਅਜੀਤ ਸਿੰਘ ਜੀ--साहिब अजीत सिंह जी
2 ਸਾਹਿਬ ਜੁਝਾਰ ਸਿੰਘ ਜੀ--साहिब जुझार सिंह जी
3 ਸਾਹਿਬ ਜ਼ੋਰਾਵਰ ਸਿੰਘ ਜੀ--साहिब जोरावर सिंह जी
4 ਸਾਹਿਬ ਫਤਹਿ ਸਿੰਘ ਜੀ--साहिब फतहि--सिंह जी
ਪੰਜ ਪਿਆਰੇ--पंज पियारे
1 ਭਾਈ ਦਇਆ ਸਿੰਘ ਜੀ--भाई दरिया सिंह जी
2 ਭਾਈ ਧਰਮ ਸਿੰਘ ਜੀ--भाई धरम सिंह जी
3 ਭਾਈ ਮੋਹਕਮ ਸਿੰਘ ਜੀ--भाई मोहकम सिंह जी
4 ਭਾਈ ਹਿੰਮਤ ਸਿੰਘ ਜੀ--भाई हिम्मत सिंह जी
5 ਭਾਈ ਸਾਹਿਬ ਸਿੰਘ ਜੀ--भाई साहिब सिंह जी
ਪੰਜ ਤਖਤ--पंज तख्त
1. ਸ੍ਰੀ ਅਕਾਲ ਤਖਤ ਸਾਹਿਬ, ਅੰਮ੍ਰਿਤਸਰ (ਪੰਜਾਬ)--श्री अकाल तख्त साहिब
2. ਸ੍ਰੀ ਪਟਨਾ ਸਾਹਿਬ (ਬਿਹਾਰ)--श्री पटना साहिब
3. ਸ੍ਰੀ ਕੇਸਗੜ੍ਹ ਸਾਹਿਬ (ਪੰਜਾਬ)--श्री केसगढ़ साहिब
4. ਸ੍ਰੀ ਹਜ਼ੂਰ ਸਾਹਿਬ (ਮਹਾਂਰਾਸ਼ਟਰ)--श्री हजूर साहिब
5. ਸ੍ਰੀ ਦਮਦਮਾ ਸਾਹਿਬ --श्री दमदमा साहिब
ਪੰਜ ਕਕਾਰ--पंज ककार
1. ਕੇਸ--केश
2. ਕਿਰਪਾਨ--किरपान
3. ਕਛਹਿਰਾ--कछहिरा
4. ਕੜਾ--कड़ा
5. ਕੰਘਾ--कंघा
ਚਾਰ ਕੁਰਹਿਤਾਂ--चार कुर्हितां
1. ਕੇਸਾਂ ਦੀ ਬੇਅਦਬੀ, ਕਤਲ ਕਰਨਾ--
केशां डी बेअदबी , क़त्ल करना
2. ਕੁੱਠਾ (ਮੁਸਲਮਾਨੀ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਬਣਿਆ ਮਾਸ) ਖਾਣਾ--कुठा (मुसलमानी तरीके नाल बनिया मांस ) खाणा
3. ਪਰ ਇਸਤਰੀ, ਪਰ ਪੁਰਸ਼ ਨਾਲ ਸੰਗ ਕਰਨਾ--पर स्त्री , पर पुरुष नाल संग करना
4. ਤੰਬਾਕੂ ਤੋਂ ਬਣੀਆਂ ਚੀਜ਼ਾਂ ਦਾ ਸੇਵਨ ਕਰਨਾ--तम्बाकू तों बणिया चीजां दा सेवन करना
ਸਿੱਖਾਂ ਦੇ ਸਦੀਵੀਂ ਗੁਰੁ--सिखां दे सदीवीं गुरु
ਸਾਹਿਬ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੁ ਗੰਰਥ ਸਾਹਿਬ ਜੀ, ਦਸਾਂ ਪਾਤਸ਼ਾਹੀਆਂ ਦੀ ਜਗਦੀ ਜੋਤ, ਜੁਗੋ ਜੁਗ ਅਟੱਲ--साहिब श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी, दसां पातशहिआन दी जगदी जोत.
Wednesday, December 7, 2011
प्रारब्ध पहले रच्यो पीछे भयो शरीर / अशोक मेहता (राउरकेला )
एक सेठ जी थे | काफी बूढ़े हो गए थे | दाना दलने की एक चक्की थी उनकीदूकान पर बैठे थे | बूढ़े होने पर भीदाना दल रहे थे | |
दलते जाते, कहते जाते- “इस जीवन से तो मौत अच्छी है |”
इसी समय एक साधु दूकान के पास से होकर निकले| उन्होंने सेठ जी के ये शब्द सुने, सोचा कितना दुखी है यह व्यक्ति ! इसकी सहायता करनी चाहिये |’ उसके पास जाकर बोले – सेठ बहुत दुखी लगता है तू ! मेरे पास एक विद्या है ! यदि तू चाहे तो तुझे स्वर्ग ले जा सकता हूँ| चलता है तो चल! यहाँ के दुखों से छुटकारा मिल जायगा |
सेठ ने साधु की और देखा; बोला –“बहुत दयावान हो तुम, परन्तु मैं जा कैसे सकता हूँ? इतना बुढा हो गया , अभी तक कोई संतान नहीं हुई | संतान हो जाय तो चलूँगा अवश्य|”
साधु ने कहा – “बहुत अच्छा |” और चला गया |
कुछ वर्षों बाद सेठ के दो बेटे पैदा हो गये| साधु ने वापस आकर कहा- “ चलो सेठ ! अब तो तुम्हारी सन्तान हो गई|”
सेठ ने कहा – “हाँ हो तो गई, परन्तु अभी तक वह किसी योग्य तो नहीं | लड़के तनिक बड़े हो जाएँ, तब तुम आना | मैं अवश्य चलूँगा |
लड़के बड़े हो गये | साधु फिर आया तो सेठ नहीं था | पूछा उसने की सेठ कहाँ हैं ? तो पता लगा की मर गये हैं | साधु ने योग बल से देखा कि मर कर वह गया कहाँ ? तो उसने पता लगाया कि दूकान के बाहर जो बैल बंधा है, वही पिछले जन्म का सेठ है |
उसके पास जाकर साधु ने कहा - अब चलेगा स्वर्ग को ?”
सेठ (बैल) ने सर हिला कर कहा- “कैसे जाऊँ| बच्चे अभी नासमझ हैं | मैं चला गया तो कोई दूसरा बैल ले आयेंगे | जितनी अच्छी प्रकार से मैं बोझ उठता हूँ, उतनी अच्छी प्रकार से दूसरा बैल बोझ नहीं
उठाएगा| तो मेरे बच्चों को हानि हो जायेगी | ना भाई अभी तो मैं नहीं जा सकता, कुछ देर और ठहर जा |”
पांच वर्ष व्यतीत हो गये | साधु फिर वापस आया | देखा- दूकान के सामने अब बैल नहीं है| दूकान के मालिकों ने एक ट्रक खरीद लिया है | उसने इधर उधर से पूछा कि बैल कहाँ गया ? ज्ञात हुआ, बोझ ढोते ढोते मर गया | साधु ने फिर अपने योग बल का प्रयोग करके पता लगाया | तो पता लगा कि- कि वह सेठ अपने ही घर के द्वार पर कुत्ता बन कर बैठा है | साधु ने उसके पास जाकर कहा _ अब तो बोझ ढोने कि बात भी नहीं रही | अब चल तुझे स्वर्ग ले चलूँ |”
कुत्ते के शरीर में बैठे सेठ ने कहा- अरे कैसे ले चलेगा ! देखता नहीं कि मेरी बहु ने कितने आभूषण पहन रखे हैं? मेरे लड़के घर में नहीं हैं, यदि कोई चोर आ गया तो बहु को बचायेगा कौन? नहीं बाबा! तुम जाओ, अभी मैं नहीं जा सकता |”
साधू चला गया | एक वर्ष बाद उसने वापस आकर देखा कि कुत्ता भी मर गया है | उस साधु ने अपने योग बल द्वारा पुनः उस सेठ को खोजा | तो ज्ञात हुआ कि वह अपने घर के पास बहने वाली गन्दी नाली में कीड़ा बन के बैठा है | साधु ने उसके पास जाकर कहा- “देखो सेठ! क्या इससे बड़ी दुर्गति भी कभी होगी? कहाँ से कहाँ पहुँच गये तुम ! अब भी मेरी बात मानो | आओ तुम्हें स्वर्ग ले चलूँ|”
कीड़े के शरीर में बैठे सेठ ने चिल्ला कर कहा - “चला जा यहाँ से ! क्या मैं ही रह गया हूँ स्वर्ग जाने के लिए ? उनको ले जा मुझको यहीं पड़ा रहने दे | यहाँ पोतों पोतीओं को आते जाते देख कर प्रसन्न होता हूँ | स्वर्ग में क्या मैं तेरा मुख देखा करूँगा ?”
यह है मोह के चक्र में फंसे रहने का परिणाम | जो आगे चल कर हमारा प्रारब्ध बन जाता है| प्रारब्ध हमारे पूर्व जन्मों के कर्मो को कहा जाता है | यह मोह का चक्र आत्मा को नीचे ही नीचे ढकेलता चला जाता है | नहीं , इस प्रकार के कर्म मत करो ! कर्म करो अवश्य, परन्तु मोह और ममता से परे हट कर | वर्तमान के हमारे सुख और दुःख का हमारे पूर्व जन्म के कर्मो अर्थात प्रारब्ध से सम्बन्ध है और प्रारब्ध जन्म जन्मातर तक पीछा करते रहते है | इस लिए तो किसी ने कहा है “जूं जल भीतर कँवल रहे, जल में डूबे ताहीं| ग्यानी जगत में रहत भी, लिपत्मान हो नाहिं||”
Saturday, December 3, 2011
Wednesday, November 30, 2011
Sunday, November 27, 2011
Great Mohyal : Ram Bhaj Dutt Chaudhri
RAM BHAJ DUTT CHAUDHARI (OF LAHORE). Born about 1867. Son of Radha Kishen, M OHYAL Brahmin of the Gurdaspur District. Educated at the Forman Christian College, Lahore ; B. A. of Punjab Univer- sity ; Pleader of the Chief Court, Lahore. Ram Bhaj Dutt is a leader of the local Arya Samaj for which he has often worked as Secretary. In October 1905 married Sarala Devi (q.v.) who was already prominent in Nationalist circles in Calcutta. Thereafter Ram Bhaj Dutt became a more iealous politician. Ram Bhaj Dutt was proprietor of the Hindustan newspaper, of which Amba Parsad (q.v.) was for a time sub-editor. The Press and the paper were purchased by him from Dina Nath and Ishri Parshad In July 1907, when Dina Nath was convicted of sedition. In July 1908 it was privately reported that bpth Ajit Singh and Amba Prasad were receiv- ing pecuniary assistance from Ram Bhaj Dutt. In August 1908 Ram Bhaj Dutt, then Secretary of the Arya Pratinidhi Sabha (the controlling body of the Arya Samaj for the Punjab) left for England. He did not do much there that was noticeable. He returned to Lahore in November 1908, and on 1st March 1909 he presented himself before Mr. Fenton, Chief Secretary to Government, saying that he con- templated applying for the vacant Governorship pf Jammu, and inquiring whether, if the Maharajah referred to the Punjab Government the question of his loyalty, satisfactory assurances would be given pn the point, as he had a misgiving that some of his Beeches had been subject to misconception. Since then he and his wife have been taking a loyalist line and mixing in European society. Ram Bhaj Dutt of Lahore should not be confused with Pandit Bhoj Dutt Sharma of the Masafir of Agra. SARALA DEVI (wife of Ram Bhaj Dutt). Born about ,1882. Daughter of Mr. J. Ghosal of Calcutta, an old leader of the National Congress party. Has a brother Mr. J. Ghosal in the I. C. S. (Collector of Ratnagiri, Bombay 1910) who is married to the Princess Sukriti, daughter of the Maharajah of Cooch Behar. Sarala Devi's mother was Secretary of the Ladies' Theosophical Society of Calcutta, and Babu Rabindranath Tagore, a well-known Bengali poet, is her uncle. Sarala Devi was not married at the customary early age, as her parents desired that she should devote her life to the service of the country. She was one of the originators of the Swadeshi movement in Calcutta long before the partition, and tried to rouse the people by reviving old festivals, starting music clubs for the cultivation of national songs, and setting up a kind of ' Hero- worship' by means of plays describing the doings of the Hindu heroes of the past. She was one of the first to start lathi-play and sword exercise in Bengal, and from 1902 to 1904 she had an athletic club where these exercises were taught at her father's house at Baliygunge. The teacher was a certain ' Pro- fessor' Murtaza. There can be no doubt that she was a thorough extremist, and that the object of all these movements was to rouse the national spirit and the national strength in Bengal, with a view eventually to driving the English out. The later agitation and disturbances in Bengal were simply the natural development of her work. It has long been recognised in Bengal that no rising in India has any chance of success without the 99 co-operation of ihe Punjab, which was the great stumbling-block to the mutineers in 1857. It is possible that Sarala Devi's marriage with Ram Bhaj Dutt of Lahore in October 1905 was arranged partly with a view to provide a link in the agitation between the two Provinces, and for a year or two afterwards there were indications that it was being used fer this end. Lately, however, as has been noticed above, Ram Bhaj Dutt has begun to come round to the side of Government and Sarala Devi is apparently following the same course as her husband.
Saturday, November 26, 2011
सावन का जब लगा महीना..
सावन का जब लगा महीना
बदल नभ में डोले
सुखी बेले बौराई वन
मोर पपीहा बोले
... पर्वत पर पानी की कलकल
छलक-छलक इठलाती
धीरे धीरे सर-सर की ध्वनि
मैदानों में आती
पक्षी फर-फर करते जल में
चोंच - डुबोनी खेले
तोते चुप - चुप आँखे मारे
मैना हंस - हंस झेले
दूर धुले तरु - कुंजो की
छोटी से कोयल बोली
जिसको सुनकर लगा चौकड़ी
भागी है मृग - टोली
हुक - हुक कर बन्दर कूड़े
कचनारो की डाली
जिनके निचे पूंछ हिला गौ
दल ने ठौर बना ली
चली ग्वाल गाती
हरियाली के गाने
लिए फावड़ा कुषक खेत की
आये डाल बनाने
इन्द्रपुरी क्या उतरी वन में
पटरानी आँगन में
ताल तलैयों की तरुनाई
झींगुर तेरे मन में
बदल नभ में डोले
सुखी बेले बौराई वन
मोर पपीहा बोले
... पर्वत पर पानी की कलकल
छलक-छलक इठलाती
धीरे धीरे सर-सर की ध्वनि
मैदानों में आती
पक्षी फर-फर करते जल में
चोंच - डुबोनी खेले
तोते चुप - चुप आँखे मारे
मैना हंस - हंस झेले
दूर धुले तरु - कुंजो की
छोटी से कोयल बोली
जिसको सुनकर लगा चौकड़ी
भागी है मृग - टोली
हुक - हुक कर बन्दर कूड़े
कचनारो की डाली
जिनके निचे पूंछ हिला गौ
दल ने ठौर बना ली
चली ग्वाल गाती
हरियाली के गाने
लिए फावड़ा कुषक खेत की
आये डाल बनाने
इन्द्रपुरी क्या उतरी वन में
पटरानी आँगन में
ताल तलैयों की तरुनाई
झींगुर तेरे मन में
Friday, November 25, 2011
अशोक वर्मा की ग़ज़ल
इस चमन में खुशबुओं का मैं पता रख जाऊँगा।
रात में ठोकर मुसाफिर को लगे ना इसलिए
मैं गली के मोड़ पर जलता दिया रख जाऊँगा।
आने वाली नस्ल शर्मिंदा कभी होगी नहीं
ज़िंदगी जीने का मैं वो फ़लसफ़ा रख जाऊँगा।
इस अपाहिज वक्त पर तुम मत हँसो अय पत्थरो
शक्ल जो बदलेगा इसकी आईना रख जाऊँगा।
बाद मेरे जान लेंगे लोग सब मेरा हुनर
कुछ लिखा पन्नों पे और कुछ अनलिखा रख जाऊँगा।
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
पुस्तक ' ग़ज़ल बोलती है " से साभार
चित्र - अशोक लव
Thursday, November 24, 2011
कविता -"अहंकारी की आत्म-प्रवंचना " / अशोक लव
बस मैं ही मैं हूँ
यहाँ भी और वहाँ भी
इधर भी और उधर भी
ऊपर भी और नीचे भी
यह भी है मेरा
और वह भी है मेरा
जिधर देखता हूँ
स्वयं को देखता हूँ
जो कुछ सोचता हूँ
स्वयं को सोचता हूँ।
मेरे सिवा और क्या है जहां में ?
यह मकां मेरा वह दुकां मेरी
यह पत्नी मेरी
वह बच्चे मेरे
यह नौकर मेरे
वह चाकर मेरे
और क्या है जहां में
सिवा मेरे
यहाँ भी मैं हूँ
और वहाँ भी मैं हूँ
मैं ही हूँ बस
मैं ही मैं हूँ।
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
चित्र --अशोक लव
Dressing Tips For Short Heighten
FOR LADIES |
For Gents Men who are below the height of 5 feet 6 inches are referred as short. For them the different dressing tips are as follows –
Tops – If you are shorter in height you should wear vertical lined shirts or t-shirts. You can wear ‘V’ shaped necked t-shirts and slim fitting shirts. In a formal dress you can wear peak lapel and slightly longer coat because it creates taller look.
Pants – For taller look you should wear nicely fitted pant. Another way to look taller is to wear same color top and bottom.
It is also very necessary to know what makes you look shorter like low waisted trousers double breasted coats, too long coats and different colored top and bottom.
On of the well dressed Hollywood star TOM CRUISE is short in height even than he a style icon.
Not every man looks like Brad Pitt or Salman Khan but if you follow the above “Dressing Tips for Men” you’ll look equally handsome. Selecting clothes is not an ordinary work; this is a task of making new identity. These dressing tips will definitely make it easy for you to choose right clothes to match your body type. Follow these tips and discover the new fashion icon in you.
Sunday, November 20, 2011
Tajamahal is Tejo Mahalaya / PN Oak
Shocking Truth of Taj Mahal exposed by Late Pujya P. N. Oak
Kartik Krushna 10, Kaliyug Varsha 5113
Taj Mahal is a corrupt version of Tejo Mahalaya (Lord Shiva's Palace) : P. N. Oak
NOW READ THIS.......
No one has ever challenged it except Prof. P. N. Oak, who believes the whole world has been duped. In his book Taj Mahal: The True Story, Oak says the Taj Mahal is not Queen Mumtaz's tomb but an ancient Hindu temple palace of Lord Shiva (then known as Tejo Mahalaya ). In the course of his research Oak discovered that the Shiva temple palace was usurped by Shah Jahan from then Maharaja of Jaipur, Jai Singh.In his own court chronicle, Badshahnama, Shah Jahan admits that an exceptionally beautiful grand mansion in Agra was taken from Jai SIngh for Mumtaz's burial . The ex-Maharaja of Jaipur still retains in his secret collection two orders from Shah Jahan for surrendering the Taj building.
Using captured temples and mansions, as a burial place for dead courtiers and royalty was a common practice among Muslim rulers. For example, Humayun,Akbar, Etmud-ud-Daula and Safdarjung are all buried in such mansions.
Oak's inquiries began with the name of Taj Mahal. He says the term " Mahal " has never been used for a building in any Muslim countries from Afghanisthan to Algeria . "The unusual explanation that the term Taj Mahal derives from Mumtaz Mahal was illogical in atleast two respects. Firstly, her name was never Mumtaz Mahal but Mumtaz-ul-Zamani ," he writes. Secondly, one cannot omit the first three letters 'Mum' from a woman's name to derive the remainder as the name for the building."
Taj Mahal, he claims, is a corrupt version of Tejo Mahalaya, or Lord Shiva's Palace. Oak also says the love story of Mumtaz and Shah Jahan is a fairy tale created by court sycophants, blundering historians and sloppy archaeologists. Not a single royal chronicle of Shah Jahan's time corroborates the love story.
Furthermore, Oak cites several documents suggesting the Taj Mahal predates Shah Jahan's era, and was a temple dedicated to Shiva, worshipped by Rajputs of Agra city. For example, Prof. Marvin Miller of New York took a few samples from the riverside doorway of the Taj. Carbon dating tests revealed that the door was 300 years older than Shah Jahan. European traveler Johan Albert Mandelslo,who visited Agra in 1638 (only seven years after Mumtaz's death), describes the life of the cit y in his memoirs. But he makes no reference to the Taj Mahal being built. The writings of Peter Mundy, an English visitor to Agra within a year of Mumtaz's death, also suggest the Taj was a noteworthy building well before Shah Jahan's time.
Prof. Oak points out a number of design and architectural inconsistencies that support the belief of the Taj Mahal being a typical Hindu temple rather than a mausoleum. Many rooms in the Taj ! Mahal have remained sealed since Shah Jahan's time and are still inaccessible to the public . Oak asserts they contain a headless statue of Lord Shiva and other objects commonly used for worship rituals in Hindu temples.
Wednesday, November 16, 2011
ब्राह्मण-संत वंदना - बालकाण्ड (रामचरितमानस)
गोस्वामी तुलसीदास
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
भावार्थ:-पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
* साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
* मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
भावार्थ:-संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
* बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
भावार्थ:-विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥
* बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
भावार्थ:-(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
* अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
भावार्थ:-वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥
दोहा :
* सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
भावार्थ:-जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥
चौपाई :
* मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
भावार्थ:-इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥
* बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
भावार्थ:-वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥
* मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावार्थ:-उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
* बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥
* सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
भावार्थ:-दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
* बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
भावार्थ:-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
दोहा :
* बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
भावार्थ:-मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥
* संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
भावार्थ:-संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
Chanakya Said...
*Learn from the mistakes of others... you can't live long enough to make them all yourselves.
*Books are as useful to a stupid person as a mirror is useful to a blind person.
*A person should not be too honest. Straight trees are cut first and honest people are screwed first.
*Even if a snake is not poisonous, it should pretend to be venomous.
*There is some self-interest behind every friendship. There is no friendship without self-interests. This is a bitter truth.
*Before you start some work, always ask yourself three questions - Why am I doing it, What the results might be and Will I be successful. Only when you think deeply and find satisfactory answers to these questions, go ahead.
*As soon as the fear approaches near, attack and destroy it.
*The world's biggest power is the youth and beauty of a woman.
*Once you start a working on something, don't be afraid of failure and don't abandon it. People who work sincerely are the happiest.
*The fragrance of flowers spreads only in the direction of the wind. But the goodness of a person spreads in all direction. *God is not present in idols. Your feelings are your god. The soul is your temple.
*A man is great by deeds, not by birth.
*Never make friends with people who are above or below you in status. Such friendships will never give you any happiness.
*Treat your kid like a darling for the first five years. For the next five years, scold them. By the time they turn sixteen, treat them like a friend. Your grown up children are your best friends.
*Education is the best friend. An educated person is respected everywhere. Education beats the beauty and the youth.
Compiled by--Sumita Bhimwal
प्रेम-प्यार से चल रहा , है देखो संसार
वही रिश्ते हैं पनपते, जिनमें होता प्यार। ।
--अशोक लव
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में /-बहादुर शाह जफ़र
किसकी बनी है आलमे-नापायदार में
बुलबुल को बागबाँ से न सय्याद से गिला
किस्मत मेँ कैद लिखी थी, फ़सले बहार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिले-दागदार में
इक शाखे-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
काँटे बिछा दिये हैं दिले-लालहजार में
उम्रे-दराज माँग के लाये थे चार दिन
दो आरजू में कट गये दो इंतजार में
दिन जिन्दगी के खत्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएँगे कुंजे-मज़ार में
कितना है बदनसीब ज़फर दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूए-यार में ।
-बहादुर शाह ज़फ़र
प्रस्तुति--सुरेन्द्र लौ
Tuesday, November 15, 2011
निंदा करने वाले चांडाल होते हैं / चाणक्य
मुनीनाम कोप चांडाल:, सर्वेषा चैव निंदक : । ।
पक्षियों में कौवा चांडाल होता है।
पशुओं में कुत्ता चांडाल होता है।
मुनियों में क्रोध करने वाले चांडाल होते हैं।
सबकी निंदा करने वाले भी चांडाल होते हैं।
--पुस्तक : चाणक्य नीति , पृष्ठ-४०
संपादक -अशोक लव