एक सेठ जी थे | काफी बूढ़े हो गए थे | दाना दलने की एक चक्की थी उनकीदूकान पर बैठे थे | बूढ़े होने पर भीदाना दल रहे थे | |
दलते जाते, कहते जाते- “इस जीवन से तो मौत अच्छी है |”
इसी समय एक साधु दूकान के पास से होकर निकले| उन्होंने सेठ जी के ये शब्द सुने, सोचा कितना दुखी है यह व्यक्ति ! इसकी सहायता करनी चाहिये |’ उसके पास जाकर बोले – सेठ बहुत दुखी लगता है तू ! मेरे पास एक विद्या है ! यदि तू चाहे तो तुझे स्वर्ग ले जा सकता हूँ| चलता है तो चल! यहाँ के दुखों से छुटकारा मिल जायगा |
सेठ ने साधु की और देखा; बोला –“बहुत दयावान हो तुम, परन्तु मैं जा कैसे सकता हूँ? इतना बुढा हो गया , अभी तक कोई संतान नहीं हुई | संतान हो जाय तो चलूँगा अवश्य|”
साधु ने कहा – “बहुत अच्छा |” और चला गया |
कुछ वर्षों बाद सेठ के दो बेटे पैदा हो गये| साधु ने वापस आकर कहा- “ चलो सेठ ! अब तो तुम्हारी सन्तान हो गई|”
सेठ ने कहा – “हाँ हो तो गई, परन्तु अभी तक वह किसी योग्य तो नहीं | लड़के तनिक बड़े हो जाएँ, तब तुम आना | मैं अवश्य चलूँगा |
लड़के बड़े हो गये | साधु फिर आया तो सेठ नहीं था | पूछा उसने की सेठ कहाँ हैं ? तो पता लगा की मर गये हैं | साधु ने योग बल से देखा कि मर कर वह गया कहाँ ? तो उसने पता लगाया कि दूकान के बाहर जो बैल बंधा है, वही पिछले जन्म का सेठ है |
उसके पास जाकर साधु ने कहा - अब चलेगा स्वर्ग को ?”
सेठ (बैल) ने सर हिला कर कहा- “कैसे जाऊँ| बच्चे अभी नासमझ हैं | मैं चला गया तो कोई दूसरा बैल ले आयेंगे | जितनी अच्छी प्रकार से मैं बोझ उठता हूँ, उतनी अच्छी प्रकार से दूसरा बैल बोझ नहीं
उठाएगा| तो मेरे बच्चों को हानि हो जायेगी | ना भाई अभी तो मैं नहीं जा सकता, कुछ देर और ठहर जा |”
पांच वर्ष व्यतीत हो गये | साधु फिर वापस आया | देखा- दूकान के सामने अब बैल नहीं है| दूकान के मालिकों ने एक ट्रक खरीद लिया है | उसने इधर उधर से पूछा कि बैल कहाँ गया ? ज्ञात हुआ, बोझ ढोते ढोते मर गया | साधु ने फिर अपने योग बल का प्रयोग करके पता लगाया | तो पता लगा कि- कि वह सेठ अपने ही घर के द्वार पर कुत्ता बन कर बैठा है | साधु ने उसके पास जाकर कहा _ अब तो बोझ ढोने कि बात भी नहीं रही | अब चल तुझे स्वर्ग ले चलूँ |”
कुत्ते के शरीर में बैठे सेठ ने कहा- अरे कैसे ले चलेगा ! देखता नहीं कि मेरी बहु ने कितने आभूषण पहन रखे हैं? मेरे लड़के घर में नहीं हैं, यदि कोई चोर आ गया तो बहु को बचायेगा कौन? नहीं बाबा! तुम जाओ, अभी मैं नहीं जा सकता |”
साधू चला गया | एक वर्ष बाद उसने वापस आकर देखा कि कुत्ता भी मर गया है | उस साधु ने अपने योग बल द्वारा पुनः उस सेठ को खोजा | तो ज्ञात हुआ कि वह अपने घर के पास बहने वाली गन्दी नाली में कीड़ा बन के बैठा है | साधु ने उसके पास जाकर कहा- “देखो सेठ! क्या इससे बड़ी दुर्गति भी कभी होगी? कहाँ से कहाँ पहुँच गये तुम ! अब भी मेरी बात मानो | आओ तुम्हें स्वर्ग ले चलूँ|”
कीड़े के शरीर में बैठे सेठ ने चिल्ला कर कहा - “चला जा यहाँ से ! क्या मैं ही रह गया हूँ स्वर्ग जाने के लिए ? उनको ले जा मुझको यहीं पड़ा रहने दे | यहाँ पोतों पोतीओं को आते जाते देख कर प्रसन्न होता हूँ | स्वर्ग में क्या मैं तेरा मुख देखा करूँगा ?”
यह है मोह के चक्र में फंसे रहने का परिणाम | जो आगे चल कर हमारा प्रारब्ध बन जाता है| प्रारब्ध हमारे पूर्व जन्मों के कर्मो को कहा जाता है | यह मोह का चक्र आत्मा को नीचे ही नीचे ढकेलता चला जाता है | नहीं , इस प्रकार के कर्म मत करो ! कर्म करो अवश्य, परन्तु मोह और ममता से परे हट कर | वर्तमान के हमारे सुख और दुःख का हमारे पूर्व जन्म के कर्मो अर्थात प्रारब्ध से सम्बन्ध है और प्रारब्ध जन्म जन्मातर तक पीछा करते रहते है | इस लिए तो किसी ने कहा है “जूं जल भीतर कँवल रहे, जल में डूबे ताहीं| ग्यानी जगत में रहत भी, लिपत्मान हो नाहिं||”
No comments:
Post a Comment