देवभूमि हिमालय की पावन कोख में भगवान शिव का प्रथम ज्योतिर्लिंग जागेश्वर में स्थित है. जागेश्वर का प्राचीन मृत्युंजय मंदिर धरती पर स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों का उद्गम स्थल है. इसके पौराणिक, ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक प्रमाण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं. यहां का प्राकृतिक वैभव हर पर्यटक-तीर्थयात्री को मंत्रमुग्ध कर लेता है. देवाधिदेव महादेव यहां आज भी वृक्ष के रूप में मां पार्वती सहित विराजते हैं. इस मान्यता के चलते हज़ारों श्रद्धालु यहां हर वर्ष खिंचे चले आते हैं. भगवान शिव-पार्वती के युगल रूप के दर्शन यहां आने वाले श्रद्धालु मंदिर परिसर में स्थित नीचे से एक और ऊपर से दो शाखाओं वाले विशाल देवदारू के वृक्ष में करते हैं, जो 62.80 मीटर लंबा और 8.10 मीटर व्यास का है, जिसे अति प्राचीन बताया जाता है.
भगवान शिव ही एकमात्र देवता हैं, जिन्होंने सदैव मृत्यु पर विजय पाई. मृत्यु ने कभी भी शिव को पराजित नहीं किया. इसी कारण उन्हें मृत्युंजय के नाम से पुकारा गया. जागेश्वर धाम के मंदिर समूह में सबसे विशाल एवं सुंदर मंदिर महामृत्युंजय महादेव जी के नाम से विख्यात है, जिसमें पूजन आदि का कार्य उच्चकुल भट्ट ब्राह्मण सृष्टि दत्त का परिवार करता है.
भारत की सनातन संस्कृति में त्रय देवों में भगवान शिव को महादेव के नाम से पुकारा जाता है. श्वेताश्वर उपनिषद में शिव को उनके विशिष्ट गुणों के कारण महादेव कहा गया है. हमारे वेदों में केवल प्रकृति तत्व जो जीवन के मूल तत्व हैं, जैसे अग्नि, जल और वायु में ही देवत्व की प्रतिष्ठा की गई है, वहां भी शिव को रुद्र नाम से प्रतिस्थापित किया गया है. वैदिक काल से पूर्व भी शिव का अस्तित्व रुद्र रूप से था. शिव कालातीत देवता हैं. वह सदैव लोक मंगल के लिए गतिशील देवता के रूप में जाने जाते हैं. वह किसी विशेष समय किसी विशेष प्रयोजन के लिए अवतार नहीं धारण करते. वह अनादि-अनंत हैं. इसी कारण उनके सगुण और निर्गुण दोनों पक्ष विद्यमान हैं. हिमालय पर्वत श्रंखला में कुमाऊं क्षेत्र अपने नैसर्गिक सौंदर्य के कारण विश्व में प्रसिद्ध है. इस क्षेत्र के अल्मोड़ा नगर से पूर्वोत्तर दिशा में पिथौरागढ़ मार्ग पर 36 किमी की दूरी पर देवताओं का महानगर जागेश्वर स्थित है. इस स्थान की समुद्र तल से ऊंचाई 1870 मीटर है. देवदारू के घने वृक्षों से घिरी यह घाटी एक मनोहारी तीर्थस्थल है. जागेश्वर में 124 मंदिरों का एक समूह है, जो अति प्राचीन है. इसके चार-पांच मंदिरों में आज भी नित्य पूजा-अर्चना होती है. यहां स्थित शिवलिंग भगवान शिव के प्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात है. बारह ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं: प्रथम श्री सोमनाथ, जो सौराष्ट्र के कइयावाड़ में स्थित है. दूसरा श्री शैल पर्वत, जो तमिलनाडु के कृष्णा ज़िले में कृष्णा नदी के तट पर श्री मल्लिकार्जुन के नाम से कैलाश पर्वत पर स्थित है. तीसरा मध्य प्रदेश के उज्जयिनी में श्री महाकाल के नाम से विख्यात है. चौथा ओंकारेश्वर अथवा ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है. पांचवा हैदराबाद के परली में वैद्यनाथ के नाम से विख्यात है. छठवां पुणे से उत्तर भीमा नदी के तट पर डाकिनी नामक स्थान पर श्री भीम शंकर के नाम से स्थित है. इसी प्रकार तमिलनाडु के रामनद ज़िले में सेतुबंध श्री रामेश्वरम् के नाम से सातवां ज्योतिर्लिंग है. आठवां दारुकावन अल्मोड़ा से 35 किमी की दूरी पर योगेश्वर अथवा जागेश्वर के नाम से स्थित है. नौंवे ज्योतिर्लिंग के रूप में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में बाबा विश्वनाथ की पूजा की जाती है. गोदावरी के तट पर नासिक-पंचवटी के निकट स्थित श्री त्रयंबकेश्वर को दसवां ज्योतिर्लिंग माना जाता है. वहीं देवभूमि हिमालय के केदारखंड में स्थित श्री केदारनाथ ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात हैं. जागेश्वर में इन मंदिर समूहों का निर्माण किसने कराया, इस सवाल का जवाब खोजने पर भी नहीं मिलता, किंतु इन मंदिरों का जीर्णोद्धार राजा शालिवाहन ने अपने शासनकाल में कराया था. पौराणिक काल में भारत में कौशल, मिथिला, पांचाल, मस्त्य, मगध, अंग एवं बंग नामक अनेक राज्यों का उल्लेख मिलता है. कुमाऊं कौशल राज्य का एक भाग था. माधवसेन नामक सेनवंशी राजा देवों के शासनकाल में जागेश्वर आया था. चंद्र राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटल श्रद्धा थी. देवचंद्र से लेकर बाजबहादुर चंद्र तक ने जागेश्वर की पूजा-अर्चना की. बौद्ध काल में भगवान बद्री नारायण की मूर्ति गोरी कुंड और जागेश्वर की देव मूर्तियां ब्रह्मकुंड में कुछ दिनों पड़ी रहीं. जगतगुरु आदि शंकराचार्य ने इन मूर्तियों की पुनर्स्थापना की. स्थानीय विश्वास के आधार पर इस मंदिर के शिवलिंग को नागेश लिंग घोषित किया गया.
कहते हैं, दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद सती के आत्मदाह से दु:खी भगवान शिव ने यज्ञ की भस्म लपेट कर दायक वन के घने जंगलों में दीर्घकाल तक तप किया. इन्हीं जंगलों में वशिष्ठ आदि सप्त ॠषि अपनी पत्नियों सहित कुटिया बनाकर तप करते थे. शिव जी कभी दिगंबर अवस्था में नाचने लगते थे. एक दिन इन ॠषियों की पत्नियां जंगल में कंदमूल, फल एवं लकड़ी आदि के लिए गईं तो उनकी दृष्टि दिगंबर शिव पर पड़ गई. सुगठित स्वस्थ पुरुष शिव को देखकर वे अपनी सुध-बुध खोने लगीं. अरुंधती ने सब को सचेत किया, किंतु इस अवस्था में किसी को अपने ऊपर काबू नहीं रहा. शिव भी अपनी धुन में रमे थे, उन्होंने भी इस पर ध्यान नहीं दिया. ॠषि पत्नियां कामांध होकर मूर्छित हो गईं. वे रात भर अपनी कुटियों में वापस नहीं आईं तो प्रात: ॠषिगण उन्हें ढूंढने निकले. जब उन्होंने यह देखा कि शिव समाधि में लीन हैं और उनकी पत्नियां अस्त-व्यस्त मूर्छित पड़ी हैं तो उन्होंने व्याभिचार किए जाने की आशंका से शिव को शाप दे डाला और कहा कि तुमने हमारी पत्नियों के साथ व्याभिचार किया है, अत: तुम्हारा लिंग तुरंत तुम्हारे शरीर से अलग होकर गिर जाए. शिव ने नेत्र खोला और कहा कि आप लोगों ने मुझे संदेहजनक परिस्थितियों में देखकर अज्ञान के कारण ऐसा किया है, इसलिए मैं इस शाप का विरोध नहीं करूंगा. मेरा लिंग स्वत: गिरकर इस स्थान पर स्थापित हो जाएगा. तुम सप्त ॠषि भी आकाश में तारों के साथ अनंत काल तक लटके रहोगे. लिंग के शिव से अलग होते ही संसार में त्राहि-त्राहि मच गई. ब्रह्मा जी ने संसार को इस प्रकोप से बचाने के लिए ॠषियों को मां पार्वती की उपासना का सुझाव देते हुए कहा कि शिव के इस तेज को पार्वती ही धारण कर सकती हैं. ॠषियों ने पार्वती जी की उपासना की. पार्वती ने योनि रूप में प्रगट होकर शिवलिंग को धारण किया. इस शिवलिंग को योगेश्वर शिवलिंग के नाम से पुकारा गया.
भगवान शिव ही एकमात्र देवता हैं, जिन्होंने सदैव मृत्यु पर विजय पाई. मृत्यु ने कभी भी शिव को पराजित नहीं किया. इसी कारण उन्हें मृत्युंजय के नाम से पुकारा गया. जागेश्वर धाम के मंदिर समूह में सबसे विशाल एवं सुंदर मंदिर महामृत्युंजय महादेव जी के नाम से विख्यात है, जिसमें पूजन आदि का कार्य उच्चकुल भट्ट ब्राह्मण सृष्टि दत्त का परिवार करता है. परिसर में वृद्ध जागेश्वर महादेव, पुष्टि भगवती मां, ऐरावत गुफा एवं होम कुंड आदि दर्शनीय स्थल भी हैं.
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