Friday, September 24, 2010

श्राद्ध ज़रूर कराएँ :पितरों को भेंट करें

पितृ ऋण से मुक्ति हेतु श्राद्ध
भाद्रपद की पूर्णिमा एवं आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष कहलाता है।इस पक्ष में मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। पितृ पक्ष को पितरों की मरण-तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाताहै। सर्वपितृ अमावस्या को कुल के उन लोगों का श्राद्ध किया जाता हैं जिन्हें नहीं जानते हैं। पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियोंतक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। इन्हीं को पितरकहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात ही स्वयं पितृ तर्पण कियाजाता है।
श्राद्ध में खीर-पूरी का महत्व
भाद्रपद की पूर्णिमा एवं अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष का मानाजाता है। इस वर्ष श्राद्ध पर्व 7 अक्टूबर को समाप्त हो जाएँगे। इस दौरान मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। जिसतिथि को किसी पूर्वज का देहांत होता है उसी तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध के दौरान पंडितों कोखीर-पूरी खिलाने का महत्व होता है। माना जाता है कि इससे स्वर्गीय पूर्वजों की आत्मा तृप्त होती है।
पुरखों को भोजन कौन कराएगा?
कौओं का इस समय जिक्र करने की जरूरत सिर्फ इस लिए आन पड़ी क्योंकि पितृ पक्ष दरवाजे पर दस्तक दे रहाहै। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार पखवाड़े में कौओं को कागौर दिया जाता है। जिससे पुरखों की आत्मा कोतृप्ति मिलती है। कथानक है कि पितृ पक्ष में पुरखों की आत्माएँ परलोक से इहलोक में घूमने निकलती हैं औरअपनी क्षुधा वे कौओं के माध्यम से स्वजनों द्वारा दिए गए कागौर को ग्रहण कर शांत करतीं हैं।
श्राद्ध पक्ष में घर के कर्म
महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों मेंरहती है। यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तोनिम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर लें.
श्राद्ध कर्म क्या है?
श्रद्धावंत होकर अधोगति से मुक्ति प्राप्ति हेतु किया गया धार्मिक कृत्य- 'श्राद्ध' कहलाता है। भारतीय ऋषियों नेदिव्यानुसंधान करके उस अति अविशिष्ट काल खंड को भी खोज निकाला है जो इस कर्म हेतु विशिष्ट फलदायक है।इसे श्राद्ध पर्व कहते हैं। यह पक्ष आश्विन कृष्ण पक्ष अर्थात्प्रतिपदा से अमावस्या तक का 15 दिवसीय पक्ष है। इसपक्ष में पूर्णिमा को जोड़ लेने से यह 16 दिवसीय महालय श्राद्ध पक्ष कहलाता है। श्राद्धविधि में मंत्रों का बड़ा महत्व है
श्राद्ध में आपके द्वारा दी गई वस्तुएँ कितनी भी मूल्यवान क्यों न हों, लेकिन आपके द्वारा यदि मंत्रों का उच्चारण ठीक न हो तो कार्य अस्त-व्यस्त हो जाता है। मंत्रोच्चारण शुद्ध होना चाहिए और जिनके निमित्त श्राद्ध करते हों उनके नाम का उच्चारण शुद्ध करना चाहिए।
श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराते समय 'रक्षक मंत्र' का पाठ करके भूमि पर तिल बिखेर दें तथा अपने पितृरूप में उन द्विजश्रेष्ठों का ही चिंतन करें। 'रक्षक मंत्र' इस प्रकार हैः
यज्ञेश्वरो यज्ञसमस्तनेता भोक्ताऽव्ययात्मा हरिरीश्वरोऽस्तु

तत्संनिधानादपयान्तु सद्यो रक्षांस्यशेषाण्यसुराश्च सर्वे
।।

'
यहाँ संपूर्ण हव्य-फल के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान श्रीहरि विराजमान हैं। अतः उनकी सन्निधि के कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँ से तुरन्त भाग जाएँ।'
-(वराह पुराणः 14.32)
ब्राह्मणों को भोजन के समय यह भावना करें किः

'
इन ब्राह्मणों के शरीरों में स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज भोजन से तृप्त हो जाएँ।'
जैसे, यहाँ के भेजे हुए रुपये लंदन में पाउण्ड, अमेरिका में डालर एवं जापान में येन बन जाते हैं ऐसे ही पितरों के प्रति किये गये श्राद्ध का अन्न, श्राद्धकर्म का फल हमारे पितर जहाँ हैं, जैसे हैं, उनके अनुरूप उनको मिल जाता है। किन्तु इसमें जिनके लिए श्राद्ध किया जा रहा हो, उनके नाम, उनके पिता के नाम एवं गोत्र के नाम का स्पष्ट उच्चारण होना चाहिए। विष्णु पुराण में आता हैः
श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः।

यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत्।।

'श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न पितृगण को वे जैसे आहार के योग्य होते हैं वैसा ही होकर उन्हें मिलता है'