Tuesday, July 27, 2010
परशुराम :ऋषि और योद्धा
ऋग्वेद और पुराण की कथा में भृगुवंश का कई स्थान पर वर्णन किया गया है। इन्हीं के वंशज थे परशुराम। वेदऋषिजमदग्निइनके पिता और माता थीं रेणुका। वैशाख शुक्ल तृतीया, यानी अक्षय तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में [जो इस बार16मई को है] भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में जन्म लिया। उन्होंने अपने पिता से वेदशास्त्रऔर धनुर्विद्या की दक्षता प्राप्त कर ली। आगे कविकुलचायमानसे मल्लयुद्ध सीखा। वे शिवजी को प्रसन्न करने के लिए गंधमादनपर्वत पर तपस्या करने चले गए। अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दिव्यास्त्रों की दीक्षा के साथ परशु और त्रयम्बकदंड भी प्रदान किया और असुरों से मुक्त करने का आशीर्वाद भी। भृगुवंशीव हैहयवंशीक्षत्रियों के बीच पीढियों से शत्रुता थी। हैहयवंशमें ही सहस्रबाहुअर्जुन का जन्म हुआ, जिसकी वीरता की चर्चा चारों ओर थी। युद्ध विद्या में पारंगत होने के बाद शिवजी ने परशुराम की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। कई दिनों तक चले द्वन्द्वयुद्ध के दौरान एक दिन त्रिशूल का वार बचाते हुए परशुराम ने शिव के मस्तक पर फरसे से प्रहार कर दिया। शिष्य के इस युद्ध कौशल से गद्गद होकर गुरु शंकर ने परशुराम को गले लगा लिया। इसके बाद शिवजी के अनन्त नामों में एक नाम खंडपरशु भी जुड गया। & इधर, सहस्रबाहुअर्जुन के अत्याचार और उत्पीडन से प्रजा त्रस्त हो रही थी। एक दिन वह परशुराम की खोज में जमदग्निऋषि के आश्रम पहुंच गया। परशुराम की अनुपस्थिति में सहस्रबाहुने संपूर्ण आश्रम को जला दिया और वहां बंधी कामधेनु गाय को अपने साथ राजमहल ले गया। यह गाय ऋषि को इंद्र से मिली थी। जब परशुराम आश्रम लौटे, तो उसके नृशंस कृत्य से अवगत हुए। वे अकेले ही महिष्मतीनगरी की ओर चल दिए। परशुराम ने राजमहल के भीतर घुसकर उन्होंने अपने फरसे से अर्जुन की सहस्रभुजाएं काट डाली। कुछ ही समय बाद सहस्रबाहुके पुत्रों, पौत्रों और कई अहंकारी क्षत्रिय राजाओं ने मिलकर जमदग्निआश्रम पर फिर से हमला बोल दिया और उनका वध कर दिया। सांयकालजब परशुराम आश्रम लौटे, तो पिता का शव देखा। वे तुरंत महिष्मतीकी ओर चल पडे। उनके कंधे पर पिता का शव था, तो पीछे थीं विलाप करती हुईं उनकी माता रेणुका। उन्होंने क्रोधित होकर क्षत्रियों का समूल नाश कर दिया। इसके बाद उन्होंने पितृ तर्पण और श्राद्ध क्रिया की। पितरोंकी आज्ञानुसार परशुराम ने अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया। इसके बाद वे दक्षिण समुद्र तट की ओर चले गए। यहीं सह्याद्रिपर्वत पर उन्होंने समुद्र में अपना परशु फेंककर भडौंचसे कन्या- कुमारी तक का संपूर्ण समुद्रगतप्रदेश समुद्र से दान भेंट में प्राप्त किया।
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