चीनी उद्योग को नियंत्रणमुक्त करने की बहस के बीच अब इसकी किल्लत का आयुर्वेदिक इलाज करने की भी सिफारिश की जा रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक अगर आयुर्वेदिक चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली वनस्पति मधु पत्र यानी स्टीविया की खेती को बढ़ावा मिले तो चीनी की कड़वाहट भी दूर की जा सकेगी। स्टीविया में चीनी के मुकाबले 30 गुना ज्यादा मिठास होती है। यानी एक किलो स्टीविया पाउडर 30 किलो चीनी जितनी मिठास पैदा करता है। यह चीनी का कैलोरी मुक्त विकल्प है।
स्टीविया की खेती को प्रोत्साहित करने में जुटे इंडिया स्टीविया एसोसिएशन [आईएसए] के अध्यक्ष सौरभ अग्रवाल ने बताया कि यह गन्ने का एक प्राकृतिक विकल्प है। इससे मिठास पैदा करने वाले पाउडर की उत्पादन लागत चीनी तैयार करने के बराबर ही बैठती है। इसकी खेती को बढ़ावा देने से लोगों को चीनी कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव से निजात मिल सकती है। पिछले वर्ष गन्ना उत्पादन कम होने से चीनी के भाव करीब 50 रुपये किलो तक पहुंच गए थे।
विदेशों में स्टीविया की खेती का प्रचलन तेजी से बढ़ा है, लेकिन आयुर्वेद में मधु पत्र के रूप में वर्णित स्टीविया के बारे में अधिकतर भारतीयों को ज्यादा जानकारी नहीं है। स्टीविया हाई ब्लडप्रेशर और वजन घटाने, दांतों, पेट और त्वचा की कई बीमारियों के इलाज में काम आता है। दिल्ली फार्मास्युटिकल विज्ञान एवं शोध संस्थान [डिपसार] के प्रिंसिपल प्रो. एसएस. अग्रवाल ने कहा कि स्टीविया से तैयार मीठे पाउडर में कैलोरी की मात्रा न के बराबर है। इसके चलते इसका इस्तेमाल दवा व कोल्ड ड्रिंक वगैरह के उत्पादन में होता है।
देश के कई इलाकों में स्टीविया की खेती होने के बावजूद दिक्कत यह है कि सरकार ने अभी इसे स्वीटनर के रूप में गजट में शामिल नहीं किया है। इसके चलते देश का खाद्य उद्योग अपने उत्पादों में इसका प्रयोग नहीं कर सकता। यही कारण है कि स्टीविया की खेती और संबंधित उद्योग आगे नहीं बढ़ पा रहा है।
स्टीविया की खोज वर्ष 1837 में दक्षिण अमेरिकी देश पराग्वे में हुई थी। इसके डंठलों और पत्तों को प्रसंस्कृत कर मीठा पाउडर तैयार किया जाता है। स्टीविया की खेती के लिए पानी की भी खास जरूरत नहीं है। भारत में पुणे व ठाणे में इसकी खेती की शुरुआत हुई। इसके अलावा पंजाब, उत्तराखंड, गुजरात व मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों और हिमाचल में भी इसकी खेती हो रही है।
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