[मैने वरिष्ठ साहित्यकार श्री अशोक लव के कविता-संग्रह " लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान " पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम फ़िल की है। मैने इसके लिए श्री अशोक लव से उनके कविता -संग्रह और साहित्यिक जीवन के संबंध में विस्तृत बातचीत की।] प्रस्तुत हैं इस बातचीत के अंश -
~ आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कैसे मिली ?
* व्यक्ति को सर्वप्रथम संस्कार उसके परिवार से मिलते हैं। मेरे जीवन में मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने अहम भूमिका निभाई है। पिता जी महाभारत और रामायण की कथाएँ सुनते थे। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कहानियाँ सुनाते थे। उनके आदर्श थे--अमर सिंह राठौड़ , महारानी लक्ष्मी बाई, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस ,भगत सिंह आदि। वे उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को सुनते थे। इन सबके प्रभाव ने अध्ययन की रुचि जाग्रत की। मेरे नाना जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। वे वेदों और उपनिषदों के मर्मज्ञ थे। उनके साथ भी रहा था। उनके संस्कारों ने भी बहुत प्रभावित किया। समाचार-पत्रों में प्रकाशित साहित्यिक रचनाएँ पढ़ने की रुचि ने लेखन की प्रेरणा दी। इस प्रकार शनैः - शनैः साहित्य-सृजन के संसार में प्रवेश किया।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' कविता -संग्रह प्रकाशित कराने की योजना कैसे बनी ?
मेरा पहला कविता-संग्रह ' अनुभूतियों की आहटें ' सन् 1997 में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले की लिखी और प्रकाशन के पश्चात् लिखी गई अनेक कविताएँ एकत्र हो गई थीं। इन कविताओं को अन्तिम रूप दिया । इन्हें भाव और विषयानुसार चार खंडों में विभाजित किया-- नारी, संघर्ष, चिंतन और प्रेम। इस प्रकार पाण्डुलिपि ने अन्तिम रूप लिया। डॉ ब्रज किशोर पाठक और डॉ रूप देवगुण ने कविताओं पर लेख लिख दिए।
कविता-संग्रह प्रकशित कराने का मन तो काफ़ी पहले से था। अशोक वर्मा, आरिफ जमाल, सत्य प्रकाश भारद्वाज और कमलेश शर्मा बार-बार स्मरण कराते थे। अंततः पुस्तक प्रकाशित हो गई। एक और अच्छी बात यह हुई कि दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने इसका लोकार्पण किया, जो महिला हैं। उन्होंने इसके नाम की बहुत प्रशंसा की।
--आपने इसका नाम ' लड़कियों ' पर क्यों रखा ?
मैंने पुस्तक के आरंभ में ' मेरी कविताएँ ' के अंतर्गत इसे स्पष्ट किया है-"आज का समाज लड़कियों के मामले में सदियों पूर्व की मानसकिता में जी रहा है। देश के विभिन्न अंचलों में लड़कियों की गर्भ में ही हत्याएँ हो रही हैं। ...लड़कियों के प्रति भेदभाव की भावना के पीछे पुरुष प्रधान रहे समाज की मानसिकता है। आर्थिक रूप से नारी पुरुष पर आर्षित रहती आई है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। "
समय तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है। लड़कियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। आज की लड़कियाँ आसमान छूना चाहती हैं। उनकी इस भावना को रेखांकित करने के उद्देश्य से और समाज में उनके प्रति सकारात्मक सोच जाग्रत करने के लिए इसका नामकरण ' लड़कियों' पर किया। इसका सर्वत्र स्वागत हुआ है।'सार्थक प्रयास ' संस्था की ओर से इस पर फरीदाबाद में चर्चा-गोष्ठी हुई थी। समस्त वक्ताओं ने नामकरण को आधुनिक समय के अनुसार कहा था और प्रशंसा की थी ।
संग्रह की पहली कविता का शीर्षक भी यही है। यह कविता आज की लड़कियों और नारियों के मन के भावों और संघर्षों की क्रांतिकारी कविता है।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' मैं आपने देशी और ग्राम्य अंचलों के शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?
इसके अनेक कारण हैं। कविता की भावभूमि के कारण ऐसे शब्द स्वतः , स्वाभाविक रूप से आते चले जाते हैं। 'करतारो सुर्खियाँ बनती रहेंगी , तंबुओं मैं लेटी माँ , छूती गलियों की गंध, जिंदर ' आदि कविताओं की पृष्ठभूमि पंजाब की है। इनमें पंजाबी शब्द आए हैं 'डांगला पर बैठी शान्ति' मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र 'झाबुआ' की लड़की से सम्बंधित है। मैं वहाँ कुछ दिन रहा था। इसमें उस अंचल के शब्द आए हैं। अन्य कविताओं मैं ऐसे अनेक शब्द आए हैं जो कविता के भावानुसार हैं । इनके प्रयोग से कविता अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं। पाठक इनका रसास्वादन अधिक तन्मयता से करता है।
--आपके प्रिय कवि और लेखक कौन-कौन से हैं ?
तुलसी,कबीर , सूरदास , भूषण से लेकर सभी छायावादी कवि-कवयित्रियाँ , विशेषतः 'निराला', प्रयोगवादी, प्रगतिवादी और आधुनिक कवि-कवयित्रिओं और लेखकों की लंबी सूची है। ' प्रिय' शब्द के साथ व्यक्ति सीमित हो जाता है। प्रत्येक कवि की कोई न कोई रचना बहुत अच्छी लगती है और उसका प्रशंसक बना देती है। मेरे लिए वे सब प्रिय हैं जिनकी रचनाओं ने मुझे प्रभावित किया है। मेरे अनेक मित्र बहुत अच्छा लिख रहे हैं। वे भी मेरे प्रिय हैं।
--आपने अधिकांश कविताओं में सरल और सहज शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?
सृजन की अपनी प्रक्रिया होती है। कवि अपने लिए और पाठकों के लिए कविता का सृजन करता है। कविता ऐसी होनी चाहिए जो सीधे हृदय तक पहुँचे। कविता का प्रवाह और संगीत झरने की कल-कल-सा हृदय को आनंदमय करता है। यदि क्लिष्ट शब्द कविता के रसास्वादन में बाधक हों तो ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। कविता को सीधे पाठक से संवाद करना चाहिए।
मैं जब विद्यार्थी था तो कविता के क्लिष्ट शब्दों के अर्थ जानने के लिए शब्दकोश का सहारा लेता था। जब कविता पढ़ते-पढ़ते शब्दकोश देखना पड़े तो कविता का रसास्वादन कैसे किया जा सकता है? मैंने जब कविता लिखना आरंभ किया , मेरे मस्तिष्क में अपने अनुभव थे। मैंने इसीलिये अपनी कविताओं में सहजता बनाए रखने के लिए सरल शब्दों का प्रयोग किया ताकि आम पाठक भी इसका रसास्वादन कर सके। मेरी कविताओं के समीक्षकों ने इन्हें सराहा है।
साठोतरी और आधुनिक कविता की एक विशेषता है कि वह कलिष्टता से बची है।
--साहित्य के क्षेत्र में आप स्वयं को कहाँ पाते हैं ?
हिन्दी साहित्य में साहित्यकारों के मूल्यांकन की स्थिति विचित्र है। साहित्यिक-राजनीति ने साहित्यकारों को अलग-अलग खेमों/वर्गों में बाँट रखा है। इसके आधार पर आलोचक साहित्यकारों का मूल्यांकन करते हैं।
दूसरी स्थिति है कि हिंदी में जीवित साहित्यकारों का उनकी रचनाधर्मिता के आधार पर मूल्यांकन करने की परम्परा कम है।
तीसरी स्थिति है कि साहित्यकारों का मूल्यांकन कौन करे ? कवि-लेखक मौलिक सृजनकर्ता होते हैं । आलोचक उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं । आलोचकों के अपने-अपने मापदंड होते हैं। अपनी सोच होती है। अपने खेमे होते है। साहित्य और साहित्यकारों के साथ लगभग चार दशकों का संबंध है। इसी आधार पर यह कह रहा हूँ। रचनाओं के स्तरानुसार उनका उचित मूल्यांकन करने वाले निष्पक्ष आलोचक कम हैं। इसलिए साहित्यकारों का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। हिन्दी साहित्य से संबध साहित्यकार इस स्थिति से सुपरिचित हैं।
मैं साहित्य के क्षेत्र में कहाँ हूँ , इस विषय पर आपके प्रश्न ने पहली बार सोचने का अवसर दिया है।
मैं जहाँ हूँ,जैसा हूँ संतुष्ट हूँ । लगभग चालीस वर्षों से लेखनरत हूँ और गत तीस वर्षों से तो अत्यधिक सक्रिय हूँ। उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, लघुकथाएँ, साक्षात्कार, समीक्षाएं, बाल-गीत, लेख आदि लिखे हैं। कला-समीक्षक भी रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से भी संबद्ध रहा हूँ। पाठ्य-पुस्तकें भी लिखी और संपादित की हैं।
सन्1990 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने उपराष्ट्रपति-निवास में मेरी पुस्तक ' हिन्दी के प्रतिनिधि साहित्यकारों से साक्षात्कार ' का लोकार्पण किया था। यह समारोह लगभग दो घंटे तक चला था।
सन् 1991 में मेरे लघुकथा-संग्रह ' सलाम दिल्ली' पर कैथल (हरियाणा ) की 'सहित्य सभा' और पुनसिया (बिहार) की संस्था ' समय साहित्य सम्मलेन' ने चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की थीं ।
2009 में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने ' अपने निवास पर ' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' का लोकार्पण किया।
अनेक सहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया है।
पचास के लगभग सामाजिक-साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कृत-सम्मानित कर चुकी हैं।
इन सबके विषय मैं सोचने पर लगता है, हाँ हिन्दी साहित्य में कुछ योगदान अवश्य किया है। अब मूल्यांकन करने वाले जैसा चाहें करते रहें।
~ इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' के पश्चात् जून में नई पुस्तक 'खिड़कियों पर टंगे लोग' प्रकाशित हुई है। यह लघुकथा-संकलन है। इसका संपादन किया है। इसमें मेरे अतिरिक्त छः और लघुकथाकार हैं।
अमेरिका में दो माह व्यतीत करके लौटा हूँ। वहां के अनुभवों को लेखनबद्ध कर रहा हूँ। ‘हथेलियों पर उतरा सूर्य’ संपादित कविता-संग्रह अभी-अभी फ़रवरी 2017 प्रकाशित हुआ है। अपनी कविताओं का नया कविता-संग्रह भी प्रकाशित कराने की योजना है। इस पर कार्य चल रहा है।
--आप बहुभाषी साहित्यकार हैं। आप कौन-कौन सी भाषाएँ जानते हैं?
हिन्दी,पंजाबी और इंग्लिश लिख-पढ़ और बोल लेता हूँ। बिहार में भी कुछ वर्ष रहने के कारण अंगिका और भोजपुरी का भी ज्ञान है। संस्कृत का भी ज्ञान है। हरियाणा में रहने के कारण हरियाणवी भी जानता हूँ।
--'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता के द्वारा आपने नारी को ही नारी विरोधी दर्शाया गया है। क्यों ?
* हमारे समाज में पुत्र-मोह अत्यधिक है। संतान के जन्म लेते ही पूछा जाता है- 'क्या हुआ?' 'लड़का' शब्द सुनते ही चेहरे दमक उठाते हैं। लड्डू बाँटे जाते हैं। ' लडकी' सुनते ही सन्नाटा छा जाता है। चेहरों की रंगत उड़ जाती है। अधिकांशतः ऐसा ही होता है।
लड़कियों के जन्म लेने पर सबसे अधिक शोक परिवार और संबंधियों की महिलाएँ मनाती हैं। गाँव - कस्बों, नगरों-महानगरों सबमें यही स्थिति है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना 'मनुष्य' है। वह चाहे पुरूष है अथवा महिला। फिर भी अज्ञानतावश लोग ईश्वर की सुंदर रचना ' लड़की' के जन्म लेते ही यूँ शोक प्रकट करते हैं मानो किसी की मृत्यु हो गई हो।
पुत्र-पुत्री में भेदभाव की पृष्ठभूमि में सदियों की मानसिकता है। नारी ही नारी को अपमानित करती है। सास-ननद पुत्री को जन्म देने वाली बहुओं-भाभियों पर व्यंग्य के बाण छोड़ती हैं। अनेक माएँ तक पुत्र-पुत्री में भेदभाव करती हैं।
नारी को नारी का पक्ष लेना चाहिए। इसके विपरीत वही एक-दूसरे पर अत्याचार करती हैं। समाज में लड़कियों की भ्रूण-हत्या के पीछे यही मानसिकता है। मैं वर्षों से इस स्थिति को देख रहा हूँ। 'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता में अजन्मी पुत्री अपनी हत्यारिन माँ से अपनी हत्या करने पर प्रश्न करती है। इस विषय पर खंड-काव्य लिखा जा सकता है। मैंने लंबी कविता के मध्यम से नारियों के ममत्व को जाग्रत करने का प्रयास किया है।
--इस संग्रह में आपकी कविताएँ मुक्त-छंद में लिखी गई हैं। आपको यह छंद प्रिय क्यों है?
प्रत्येक कवि विभिन्न छंदों में रचना करता है। किसी को दोहा प्रिय है तो किसी को गीत - ग़ज़ल। मैंने इस संग्रह अपनी मुक्त-छंद में लिखी कविताओं को ही संग्रहित किया है। ।मैं गीत भी लिखता हूँ और दोहे भी लिख रहा हूँ, बाल-गीत भी लिखे हैं।
मैं छंदबद्ध रचनाओं का प्रशंसक हूँ । गीत-ग़ज़ल-दोहे मुझे प्रिय हैं। मेरे अधिकांश मित्र गीतकार-गज़लकार हैं। मैं उनकी रचनाओं का प्रशंसक हूँ । कुछ मित्रों के संग्रहों की भूमिकाएँ लिखी हैं तो कुछ मित्रों के गीत-ग़ज़ल-संग्रहों के लोकार्पण पर आलेख-पाठ किया है।
कविता किसी भी छंद में लिखी गई हो , उसे कविता होना चाहिए। मुक्त-छंद की अपनी लयबद्धता होती है, गेयता होती है, प्रवाह होता है।
--आपने अनेक विधाओं में लेखन किया है। लघुकथाकार के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान क्यों है?
लघुकथा की लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में अनेक साहित्यकारों द्वारा समर्पित भाव से किए कार्य हैं। सातवें और विशेषतया आठवें दशक में अनेक कार्य हुए। हमने आठवें दशक में खूब कार्य किए। एक जुनून था। अनेक मंचों से लघुकथा पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित कीं। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चाएँ-परिचर्चाएँ कीं। दिल्ली दूरदर्शन पर गोष्ठियां कराईं , इनमें भाग लिया। अन्य साहित्यकारों को आमंत्रित किया। अच्छी बहसें हुईं।
हरियाणा के सिरसा, कैथल, रेवाड़ीऔर गुडगाँव में गोष्ठियां कराईं । बिहार के पुनसिया और झारखण्ड के डाल्टनगंज तक में गोष्ठियों में सक्रिय भाग लिया। दिल्ली-गाजियाबाद में तो कई आयोजन हुए।
लघुकथा -संकलन संपादित किए,अन्य लघुकथा-संकलनों में सम्मिलित हुए। सन् 1988 में प्रकाशित 'बंद दरवाज़ों पर दस्तकें' संपादित किया जो बहुचर्चित रहा। सन् 1991 में मेरा एकल लघुकथा-संग्रह ‘सलाम दिल्ली’ प्रकाशित हुआ। 'साहित्य सभा' कैथल (हरियाणा) और 'समय साहित्य सम्मलेन ' पुनसिया (बिहार) की ओर से इस पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की गईं।सन 2010 में ‘ खिड़कियों पर टंगे लोग’ लघुकथा –संग्रह प्रकाशित हुआ है. संभवतः लघुकथा के क्षेत्र में इस योगदान को देखते हुए साहित्यिक संसार में विशिष्ट पहचान बनी है।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' पर साहित्यकारों और पाठकों की क्या प्रतिक्रिया हुई है ?
*इस पुस्तक का सबने स्वागत किया है। इसके नारी-खंड की जो प्रशंसा हुई है उसका मैंने अनुमान नहीं किया था। इस पर एम फिल हो रही हैं। 'वुमेन ऑन टॉप' बहुरंगी हिन्दी पत्रिका में तो इस नाम से स्तम्भ ही आरंभ कर दिया गया है। इसमें इस पुस्तक से एक कविता प्रकाशित की जाती है और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाली युवतिओं पर लेख होता है। कवयित्री आभा खेतरपाल ने 'सृजन का सहयोग' के अंतर्गत इस पुस्तक की कविताओं को नियमित प्रकाशित किया। इन कविताओं पर पाठकों और साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएँ पाकर लगता है इन कविताओं ने सबको प्रभावित किया है। जितनी प्रशंसा मिल रही है उससे सुखद लगना स्वाभाविक है।डॉ सुभद्रा खुराना, डॉ अंजना अनिल, अनिरुद्ध प्रसाद विमल, बलराम प्रसाद, अशोक वर्मा, आरिफ जमाल, डॉ जेन्नी शबनम, एन.एल. गोसाईं , रूप देवगुण, इंदु गुप्ता, डॉ अपर्णा चतुर्वेदी प्रीता, कमलेश शर्मा, डॉ कंचन छिब्बर,सर्वेश तिवारी, सत्य प्रकाश भारद्वाज , सुधा सिन्हा, प्रभा मेहता, डॉ नीना छिब्बर, आर के पंकज, डॉ शील कौशिक, डॉ आदर्श बाली, प्रकाश लखानी, रश्मि प्रभा, मनोहर लाल रत्नम, चंद्र बाला मेहता, गुरु चरण लाल दत्ता जोश आदि की लंबी लिखित समीक्षाएँ मिली हैं. इन्होंने इस कृति को अनुपम कहा है। आपने तो इस पर शोध किया है।अपनी रचनाओं का ऐसा स्वागत सुखद लगता है।
मेरा सौभाग्य था कि ‘लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ‘ के माध्यम से वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव जी से मिलने और जानने का सुअवसर मिला.उनकी सरलत-सहजता मुझे सदा प्रेरित करती रहेगी.
--शिव नारायण
~ आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कैसे मिली ?
* व्यक्ति को सर्वप्रथम संस्कार उसके परिवार से मिलते हैं। मेरे जीवन में मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने अहम भूमिका निभाई है। पिता जी महाभारत और रामायण की कथाएँ सुनते थे। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कहानियाँ सुनाते थे। उनके आदर्श थे--अमर सिंह राठौड़ , महारानी लक्ष्मी बाई, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस ,भगत सिंह आदि। वे उनके जीवन के अनेक प्रसंगों को सुनते थे। इन सबके प्रभाव ने अध्ययन की रुचि जाग्रत की। मेरे नाना जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। वे वेदों और उपनिषदों के मर्मज्ञ थे। उनके साथ भी रहा था। उनके संस्कारों ने भी बहुत प्रभावित किया। समाचार-पत्रों में प्रकाशित साहित्यिक रचनाएँ पढ़ने की रुचि ने लेखन की प्रेरणा दी। इस प्रकार शनैः - शनैः साहित्य-सृजन के संसार में प्रवेश किया।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' कविता -संग्रह प्रकाशित कराने की योजना कैसे बनी ?
मेरा पहला कविता-संग्रह ' अनुभूतियों की आहटें ' सन् 1997 में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले की लिखी और प्रकाशन के पश्चात् लिखी गई अनेक कविताएँ एकत्र हो गई थीं। इन कविताओं को अन्तिम रूप दिया । इन्हें भाव और विषयानुसार चार खंडों में विभाजित किया-- नारी, संघर्ष, चिंतन और प्रेम। इस प्रकार पाण्डुलिपि ने अन्तिम रूप लिया। डॉ ब्रज किशोर पाठक और डॉ रूप देवगुण ने कविताओं पर लेख लिख दिए।
कविता-संग्रह प्रकशित कराने का मन तो काफ़ी पहले से था। अशोक वर्मा, आरिफ जमाल, सत्य प्रकाश भारद्वाज और कमलेश शर्मा बार-बार स्मरण कराते थे। अंततः पुस्तक प्रकाशित हो गई। एक और अच्छी बात यह हुई कि दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने इसका लोकार्पण किया, जो महिला हैं। उन्होंने इसके नाम की बहुत प्रशंसा की।
--आपने इसका नाम ' लड़कियों ' पर क्यों रखा ?
मैंने पुस्तक के आरंभ में ' मेरी कविताएँ ' के अंतर्गत इसे स्पष्ट किया है-"आज का समाज लड़कियों के मामले में सदियों पूर्व की मानसकिता में जी रहा है। देश के विभिन्न अंचलों में लड़कियों की गर्भ में ही हत्याएँ हो रही हैं। ...लड़कियों के प्रति भेदभाव की भावना के पीछे पुरुष प्रधान रहे समाज की मानसिकता है। आर्थिक रूप से नारी पुरुष पर आर्षित रहती आई है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। "
समय तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है। लड़कियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। आज की लड़कियाँ आसमान छूना चाहती हैं। उनकी इस भावना को रेखांकित करने के उद्देश्य से और समाज में उनके प्रति सकारात्मक सोच जाग्रत करने के लिए इसका नामकरण ' लड़कियों' पर किया। इसका सर्वत्र स्वागत हुआ है।'सार्थक प्रयास ' संस्था की ओर से इस पर फरीदाबाद में चर्चा-गोष्ठी हुई थी। समस्त वक्ताओं ने नामकरण को आधुनिक समय के अनुसार कहा था और प्रशंसा की थी ।
संग्रह की पहली कविता का शीर्षक भी यही है। यह कविता आज की लड़कियों और नारियों के मन के भावों और संघर्षों की क्रांतिकारी कविता है।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' मैं आपने देशी और ग्राम्य अंचलों के शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?
इसके अनेक कारण हैं। कविता की भावभूमि के कारण ऐसे शब्द स्वतः , स्वाभाविक रूप से आते चले जाते हैं। 'करतारो सुर्खियाँ बनती रहेंगी , तंबुओं मैं लेटी माँ , छूती गलियों की गंध, जिंदर ' आदि कविताओं की पृष्ठभूमि पंजाब की है। इनमें पंजाबी शब्द आए हैं 'डांगला पर बैठी शान्ति' मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र 'झाबुआ' की लड़की से सम्बंधित है। मैं वहाँ कुछ दिन रहा था। इसमें उस अंचल के शब्द आए हैं। अन्य कविताओं मैं ऐसे अनेक शब्द आए हैं जो कविता के भावानुसार हैं । इनके प्रयोग से कविता अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं। पाठक इनका रसास्वादन अधिक तन्मयता से करता है।
--आपके प्रिय कवि और लेखक कौन-कौन से हैं ?
तुलसी,कबीर , सूरदास , भूषण से लेकर सभी छायावादी कवि-कवयित्रियाँ , विशेषतः 'निराला', प्रयोगवादी, प्रगतिवादी और आधुनिक कवि-कवयित्रिओं और लेखकों की लंबी सूची है। ' प्रिय' शब्द के साथ व्यक्ति सीमित हो जाता है। प्रत्येक कवि की कोई न कोई रचना बहुत अच्छी लगती है और उसका प्रशंसक बना देती है। मेरे लिए वे सब प्रिय हैं जिनकी रचनाओं ने मुझे प्रभावित किया है। मेरे अनेक मित्र बहुत अच्छा लिख रहे हैं। वे भी मेरे प्रिय हैं।
--आपने अधिकांश कविताओं में सरल और सहज शब्दों का प्रयोग किया है। क्यों ?
सृजन की अपनी प्रक्रिया होती है। कवि अपने लिए और पाठकों के लिए कविता का सृजन करता है। कविता ऐसी होनी चाहिए जो सीधे हृदय तक पहुँचे। कविता का प्रवाह और संगीत झरने की कल-कल-सा हृदय को आनंदमय करता है। यदि क्लिष्ट शब्द कविता के रसास्वादन में बाधक हों तो ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। कविता को सीधे पाठक से संवाद करना चाहिए।
मैं जब विद्यार्थी था तो कविता के क्लिष्ट शब्दों के अर्थ जानने के लिए शब्दकोश का सहारा लेता था। जब कविता पढ़ते-पढ़ते शब्दकोश देखना पड़े तो कविता का रसास्वादन कैसे किया जा सकता है? मैंने जब कविता लिखना आरंभ किया , मेरे मस्तिष्क में अपने अनुभव थे। मैंने इसीलिये अपनी कविताओं में सहजता बनाए रखने के लिए सरल शब्दों का प्रयोग किया ताकि आम पाठक भी इसका रसास्वादन कर सके। मेरी कविताओं के समीक्षकों ने इन्हें सराहा है।
साठोतरी और आधुनिक कविता की एक विशेषता है कि वह कलिष्टता से बची है।
--साहित्य के क्षेत्र में आप स्वयं को कहाँ पाते हैं ?
हिन्दी साहित्य में साहित्यकारों के मूल्यांकन की स्थिति विचित्र है। साहित्यिक-राजनीति ने साहित्यकारों को अलग-अलग खेमों/वर्गों में बाँट रखा है। इसके आधार पर आलोचक साहित्यकारों का मूल्यांकन करते हैं।
दूसरी स्थिति है कि हिंदी में जीवित साहित्यकारों का उनकी रचनाधर्मिता के आधार पर मूल्यांकन करने की परम्परा कम है।
तीसरी स्थिति है कि साहित्यकारों का मूल्यांकन कौन करे ? कवि-लेखक मौलिक सृजनकर्ता होते हैं । आलोचक उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं । आलोचकों के अपने-अपने मापदंड होते हैं। अपनी सोच होती है। अपने खेमे होते है। साहित्य और साहित्यकारों के साथ लगभग चार दशकों का संबंध है। इसी आधार पर यह कह रहा हूँ। रचनाओं के स्तरानुसार उनका उचित मूल्यांकन करने वाले निष्पक्ष आलोचक कम हैं। इसलिए साहित्यकारों का सही-सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। हिन्दी साहित्य से संबध साहित्यकार इस स्थिति से सुपरिचित हैं।
मैं साहित्य के क्षेत्र में कहाँ हूँ , इस विषय पर आपके प्रश्न ने पहली बार सोचने का अवसर दिया है।
मैं जहाँ हूँ,जैसा हूँ संतुष्ट हूँ । लगभग चालीस वर्षों से लेखनरत हूँ और गत तीस वर्षों से तो अत्यधिक सक्रिय हूँ। उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, लघुकथाएँ, साक्षात्कार, समीक्षाएं, बाल-गीत, लेख आदि लिखे हैं। कला-समीक्षक भी रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से भी संबद्ध रहा हूँ। पाठ्य-पुस्तकें भी लिखी और संपादित की हैं।
सन्1990 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने उपराष्ट्रपति-निवास में मेरी पुस्तक ' हिन्दी के प्रतिनिधि साहित्यकारों से साक्षात्कार ' का लोकार्पण किया था। यह समारोह लगभग दो घंटे तक चला था।
सन् 1991 में मेरे लघुकथा-संग्रह ' सलाम दिल्ली' पर कैथल (हरियाणा ) की 'सहित्य सभा' और पुनसिया (बिहार) की संस्था ' समय साहित्य सम्मलेन' ने चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की थीं ।
2009 में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने ' अपने निवास पर ' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' का लोकार्पण किया।
अनेक सहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया है।
पचास के लगभग सामाजिक-साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कृत-सम्मानित कर चुकी हैं।
इन सबके विषय मैं सोचने पर लगता है, हाँ हिन्दी साहित्य में कुछ योगदान अवश्य किया है। अब मूल्यांकन करने वाले जैसा चाहें करते रहें।
~ इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
' लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ' के पश्चात् जून में नई पुस्तक 'खिड़कियों पर टंगे लोग' प्रकाशित हुई है। यह लघुकथा-संकलन है। इसका संपादन किया है। इसमें मेरे अतिरिक्त छः और लघुकथाकार हैं।
अमेरिका में दो माह व्यतीत करके लौटा हूँ। वहां के अनुभवों को लेखनबद्ध कर रहा हूँ। ‘हथेलियों पर उतरा सूर्य’ संपादित कविता-संग्रह अभी-अभी फ़रवरी 2017 प्रकाशित हुआ है। अपनी कविताओं का नया कविता-संग्रह भी प्रकाशित कराने की योजना है। इस पर कार्य चल रहा है।
--आप बहुभाषी साहित्यकार हैं। आप कौन-कौन सी भाषाएँ जानते हैं?
हिन्दी,पंजाबी और इंग्लिश लिख-पढ़ और बोल लेता हूँ। बिहार में भी कुछ वर्ष रहने के कारण अंगिका और भोजपुरी का भी ज्ञान है। संस्कृत का भी ज्ञान है। हरियाणा में रहने के कारण हरियाणवी भी जानता हूँ।
--'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता के द्वारा आपने नारी को ही नारी विरोधी दर्शाया गया है। क्यों ?
* हमारे समाज में पुत्र-मोह अत्यधिक है। संतान के जन्म लेते ही पूछा जाता है- 'क्या हुआ?' 'लड़का' शब्द सुनते ही चेहरे दमक उठाते हैं। लड्डू बाँटे जाते हैं। ' लडकी' सुनते ही सन्नाटा छा जाता है। चेहरों की रंगत उड़ जाती है। अधिकांशतः ऐसा ही होता है।
लड़कियों के जन्म लेने पर सबसे अधिक शोक परिवार और संबंधियों की महिलाएँ मनाती हैं। गाँव - कस्बों, नगरों-महानगरों सबमें यही स्थिति है। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना 'मनुष्य' है। वह चाहे पुरूष है अथवा महिला। फिर भी अज्ञानतावश लोग ईश्वर की सुंदर रचना ' लड़की' के जन्म लेते ही यूँ शोक प्रकट करते हैं मानो किसी की मृत्यु हो गई हो।
पुत्र-पुत्री में भेदभाव की पृष्ठभूमि में सदियों की मानसिकता है। नारी ही नारी को अपमानित करती है। सास-ननद पुत्री को जन्म देने वाली बहुओं-भाभियों पर व्यंग्य के बाण छोड़ती हैं। अनेक माएँ तक पुत्र-पुत्री में भेदभाव करती हैं।
नारी को नारी का पक्ष लेना चाहिए। इसके विपरीत वही एक-दूसरे पर अत्याचार करती हैं। समाज में लड़कियों की भ्रूण-हत्या के पीछे यही मानसिकता है। मैं वर्षों से इस स्थिति को देख रहा हूँ। 'बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी' कविता में अजन्मी पुत्री अपनी हत्यारिन माँ से अपनी हत्या करने पर प्रश्न करती है। इस विषय पर खंड-काव्य लिखा जा सकता है। मैंने लंबी कविता के मध्यम से नारियों के ममत्व को जाग्रत करने का प्रयास किया है।
--इस संग्रह में आपकी कविताएँ मुक्त-छंद में लिखी गई हैं। आपको यह छंद प्रिय क्यों है?
प्रत्येक कवि विभिन्न छंदों में रचना करता है। किसी को दोहा प्रिय है तो किसी को गीत - ग़ज़ल। मैंने इस संग्रह अपनी मुक्त-छंद में लिखी कविताओं को ही संग्रहित किया है। ।मैं गीत भी लिखता हूँ और दोहे भी लिख रहा हूँ, बाल-गीत भी लिखे हैं।
मैं छंदबद्ध रचनाओं का प्रशंसक हूँ । गीत-ग़ज़ल-दोहे मुझे प्रिय हैं। मेरे अधिकांश मित्र गीतकार-गज़लकार हैं। मैं उनकी रचनाओं का प्रशंसक हूँ । कुछ मित्रों के संग्रहों की भूमिकाएँ लिखी हैं तो कुछ मित्रों के गीत-ग़ज़ल-संग्रहों के लोकार्पण पर आलेख-पाठ किया है।
कविता किसी भी छंद में लिखी गई हो , उसे कविता होना चाहिए। मुक्त-छंद की अपनी लयबद्धता होती है, गेयता होती है, प्रवाह होता है।
--आपने अनेक विधाओं में लेखन किया है। लघुकथाकार के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान क्यों है?
लघुकथा की लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में अनेक साहित्यकारों द्वारा समर्पित भाव से किए कार्य हैं। सातवें और विशेषतया आठवें दशक में अनेक कार्य हुए। हमने आठवें दशक में खूब कार्य किए। एक जुनून था। अनेक मंचों से लघुकथा पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित कीं। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चाएँ-परिचर्चाएँ कीं। दिल्ली दूरदर्शन पर गोष्ठियां कराईं , इनमें भाग लिया। अन्य साहित्यकारों को आमंत्रित किया। अच्छी बहसें हुईं।
हरियाणा के सिरसा, कैथल, रेवाड़ीऔर गुडगाँव में गोष्ठियां कराईं । बिहार के पुनसिया और झारखण्ड के डाल्टनगंज तक में गोष्ठियों में सक्रिय भाग लिया। दिल्ली-गाजियाबाद में तो कई आयोजन हुए।
लघुकथा -संकलन संपादित किए,अन्य लघुकथा-संकलनों में सम्मिलित हुए। सन् 1988 में प्रकाशित 'बंद दरवाज़ों पर दस्तकें' संपादित किया जो बहुचर्चित रहा। सन् 1991 में मेरा एकल लघुकथा-संग्रह ‘सलाम दिल्ली’ प्रकाशित हुआ। 'साहित्य सभा' कैथल (हरियाणा) और 'समय साहित्य सम्मलेन ' पुनसिया (बिहार) की ओर से इस पर चर्चा-गोष्ठियाँ आयोजित की गईं।सन 2010 में ‘ खिड़कियों पर टंगे लोग’ लघुकथा –संग्रह प्रकाशित हुआ है. संभवतः लघुकथा के क्षेत्र में इस योगदान को देखते हुए साहित्यिक संसार में विशिष्ट पहचान बनी है।
--'लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान' पर साहित्यकारों और पाठकों की क्या प्रतिक्रिया हुई है ?
*इस पुस्तक का सबने स्वागत किया है। इसके नारी-खंड की जो प्रशंसा हुई है उसका मैंने अनुमान नहीं किया था। इस पर एम फिल हो रही हैं। 'वुमेन ऑन टॉप' बहुरंगी हिन्दी पत्रिका में तो इस नाम से स्तम्भ ही आरंभ कर दिया गया है। इसमें इस पुस्तक से एक कविता प्रकाशित की जाती है और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाली युवतिओं पर लेख होता है। कवयित्री आभा खेतरपाल ने 'सृजन का सहयोग' के अंतर्गत इस पुस्तक की कविताओं को नियमित प्रकाशित किया। इन कविताओं पर पाठकों और साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएँ पाकर लगता है इन कविताओं ने सबको प्रभावित किया है। जितनी प्रशंसा मिल रही है उससे सुखद लगना स्वाभाविक है।डॉ सुभद्रा खुराना, डॉ अंजना अनिल, अनिरुद्ध प्रसाद विमल, बलराम प्रसाद, अशोक वर्मा, आरिफ जमाल, डॉ जेन्नी शबनम, एन.एल. गोसाईं , रूप देवगुण, इंदु गुप्ता, डॉ अपर्णा चतुर्वेदी प्रीता, कमलेश शर्मा, डॉ कंचन छिब्बर,सर्वेश तिवारी, सत्य प्रकाश भारद्वाज , सुधा सिन्हा, प्रभा मेहता, डॉ नीना छिब्बर, आर के पंकज, डॉ शील कौशिक, डॉ आदर्श बाली, प्रकाश लखानी, रश्मि प्रभा, मनोहर लाल रत्नम, चंद्र बाला मेहता, गुरु चरण लाल दत्ता जोश आदि की लंबी लिखित समीक्षाएँ मिली हैं. इन्होंने इस कृति को अनुपम कहा है। आपने तो इस पर शोध किया है।अपनी रचनाओं का ऐसा स्वागत सुखद लगता है।
मेरा सौभाग्य था कि ‘लड़कियाँ छूना चाहती हैं आसमान ‘ के माध्यम से वरिष्ठ साहित्यकार अशोक लव जी से मिलने और जानने का सुअवसर मिला.उनकी सरलत-सहजता मुझे सदा प्रेरित करती रहेगी.
--शिव नारायण
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