तुम हो
हाँ तुम हो ,
इन हवाओं में
जिसके स्पर्श कराते हैं
तुम्हारे अस्तित्व की अनुभूति।
तुम हो
हाँ तुम हो ,
झरनों के प्रवाहों में
जिनका कल-कल संगीत
हृदय को स्वयं में डुबो लेता है।
तुम हो
हाँ तुम हो ,
आकाश छूने को लालायित
समुद्र की लहरों में
मेरे स्वप्नों की भांति।
तुम हो
हाँ तुम हो ,
नन्हें शिशुओं की मुस्कानों में
जो भर देती है हृदय में- ममत्व।
तुम हो
हाँ तुम हो ,
वहाँ-वहाँ
जहाँ -जहाँ तक जाती है दृष्टि ।
तुम हो
हाँ तुम हो ,
वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ तक नहीं जा पाता
मन,
दृष्टि।
तुम हो ,
बस तुम्हीं हो
और तुम ही हो
यहाँ-वहाँ
वहाँ-यहाँ।
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०७ नवम्बर २००९
2 comments:
yah kavita adhyatm ke samsar men le jatee hai .lagta hai ham us anant ko anubhav kar rahe hain.
bahut sundar rachanaa hai .sumeet ne bilkul theek likhaa hai, mainne padhte hue yahee anubhav kiyaa, kuchh aise hee bhaav meree bhee kavitaa men hain, jo maine apnee post men likhee hai, (kripayaa 'un dinon' ke kram men latest 2-3 blog dekhiye, sheershak to naheen diyaa hai .Nalinee ke mukh se kahee gaee hai, bas itanaa dhyaan rakhen.
Dhanyawaad.
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