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Saturday, October 10, 2009

कविता -- लड़की / अशोक लव

झट बड़ी हो जाती है लड़की
और ताड़ के पेड़ - सी लम्बी दिखने लगती है
उसकी आंखों में तैरने लगते हैं
वसंत के रंग-बिरंगे सपने
वह हवा पर तैर
घूम आती है
गली- गली , शहर - शहर
कभी छू आती है आकाश
कभी आकाश के पार
चांदी के पेड़ों से तोड़ लाती है
सोने के फल

मन नहीं करता
उसे सुनाएँ
आग की तपन के गीत,
मन नहीं चाहता
उसकी आंखों के रंग-बिरंगे सपने
हो जाएँ बदरंग

हर लड़की को लांघनी होती है दहलीज
और दहलीज के पार का जीवन
स्टापू खेलने
गुड्डे-गुड्डियों की शादियाँ अचने से अलग होता है
इसलिय आवश्यक हो जाता है
हर लड़की सहती जाए आग की तपन
खेलने के संग-संग
ताकि पार करने से पूर्व दहलीज
वह तप चुकी हो
और उसकी आंखों में नहीं तैरें
केवल वसंत के सपने
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*पुस्तक-अनुभूतियों की आहटें ( प्रकशन वर्ष -१९९७)

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