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Wednesday, October 7, 2009

बालिकाएँ जन्म लेती रहेंगी / अशोक लव ( भ्रूण हत्या के विरूद्ध कविता )


माँ !आई थी मैं तुम्हारी कोख में
समेटे हृदय में स्वप्न , इच्छाएँ

देखने की लिए कामनाएँ
तुम्हारे संसार को ।
तुम्हारी साँसों के संग जुडी थीं
मेरी साँसें
तुम्हारी देह के संग जुडी थी
मेरी देह
पल रही थी मैं
बढ़ रही थी मैं
तुम्हारी कोख में धीरे-धीरे ।
सहलाती थी जब तुम
अपने ममता भरे हाथों से
छू लेना चाहती थी आकुल होकर
तुम्हारी उंगलियाँ।

माँ !
तुमने अपनी कोख में रखा मुझे
और निभाए उत्तरदायित्व घर के ,
कार्यालय के
कितना कठिन होता है गर्भावस्था में
कार्य करना ।

कोख से बहार आकर
आजीवन करूँगी तुम्हारी सेवा
तुमने जन्म देकर
मुझ पर चढ़ाया था जो ऋण
उसे उतरने का करूँगी प्रयास।

माँ !
तुमने नहीं लेने दिया जन्म मुझे
और कर डाला अपावन माँ शब्द को
तुम्हारे संसार में है नारी की हत्यारिन
नारी ही
करती है प्रताड़ित नारी को
नारी ही
भुला देती है नारीत्व , ममत्व
यद्यपि वह स्वयं होती है
किसी की पुत्री
किसी की माँ ।
माँ ! क्यों लगती हैं पहाड़ के बोझ - सी
पुत्रियाँ ?
क्यों जला दी जाती हैं
दुल्हनें ?
क्यों कर दिया जता है तार- तार
उनका झिलमिलाता स्वप्निल संसार ?
प्रताड़ित पुत्रियाँ
लौट आती हैं उस आँगन में
जहाँ से हुई थीं विदा धूमधाम से
संग लाती हैं उदासियाँ , पीड़ाएँ , टूटन , बिखराव
भिगो देती हैं अश्रुओं से
माता-पिता के कमज़ोर कंधे ।

माँ !
सामाजिक परम्पराओं के भयावह रूप को देखकर
कांपा होगा तुम्हारा हृदय
न जलाई जाऊं और न की जाऊं प्रताड़ित
न बनूँ कामी पुरुषों की कामांधता की शिकार
न कर सके कोई बलात्कारी मेरी हत्या
शायद इसीलिये तुमने ही कर डाली
मेरी हत्या !

माँ !
कैसा था मेरा भाग्य
नहीं जलाया मुझे किसी ने
न हुई शिकार किसी कामी की वासना की
कर डाली तुमने ही मेरी ह्त्या !

माँ !
कैसे जुटाया होगा साहस ?
कैसे विजयी हुई होगी ममता पर क्रूरता ?
क्या क्षण भर के लिए भी नहीं कांपा होगा
तुम्हारा हृदय ?

माँ !
क्या पता बनती तुम्हारी पुत्री वीरांगना -- झाँसी की रानी - सी
क्या पता उड़ जाती करने स्पर्श
अन्तरिक्ष की हवाओं का ,
क्या पता कंप्यूटर पर चलकर उसकी उंगलियाँ
कर डालती विश्व को चमत्कृत ,
क्या पता उसके भावुक हृदय से
सर्जित हो जाता महाकाव्य ,
क्या पता उठ खड़ी होती वह कुरीतियों के विरुद्ध
और बदल डालती सामाजिक परिदृश्य !

माँ !
तुमने तो क्षण भर में ही मिटा डाला
मेरा अस्तित्व
मैं न देख सकी सूर्योदय की लालिमा
मैं न देख सकी सूर्यास्त की थकी किरणें
न भीग सकी चाँदनी में
न छू सकी ओस-मुक्ताओं से झिलमिलाती पंखुडियाँ
न सुन सकी परियों की कहानियाँ
न करा सकी गुड्डे-गुड़िया का विवाह ।

माँ !
मैं आती तो संग लाती परी-लोक, किलकारियां
छुपन-छुपाई , तुतलाते बोल
बहती तुम्हारे आँगन में में खुशियों के कल-कल झरने
तुमने देखने नहीं दिया
अपनी गुड़िया-सी पलकें झपकती
मंद-मंद मुस्काती बेटी को
कोख से बाहर का संसार
केवल इसलिए की वह बालिका थी , बालक नहीं !

माँ !
तुम स्वयं को भूल गई
तुम भी बालिका थी
पर नहीं की थी
तुम्हारी माँ ने
तुम्हारी हत्या ,
दिया था तुम्हें जन्म
दिया था तुम्हें जिंदा रहने का ,
जीने का अधिकार ।

माँ !
मैं लूंगी जन्म अवश्य
आऊँगी इस धरती पर बालिका के रूप में ,
बालिकाएँ लेती रहेंगी जन्म
बार-बार मरे जाने के बावजूद
क्योंकि
बालिकाएँ होती हैं तपती हवाओं में बारिश की ठंडक
उनकी हँसी से झंकृत हो जाती हैं संगीत लहरियाँ
तितलियों - सी उछलती - कूदती बालिकाएँ
बिखेर देती हैं परिवेश में रंगों की छटाएँ।

माँ !
नहीं होगी बालिकाएँ तो नहीं बजेंगे
रुनझुन-रुनझुन घुँघरू ,
न स्पंदित होगी धरती ,
न झूमेगा आकाश
इसलिए मैं अवश्य जन्म लूँगी
किसी न किसी की कोख से !
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@सर्वाधिकार सुरक्षित
इस कविता के किसी भी रूप में प्रयोग करने से पूर्व
कवि से अनुमति अवश्य लें

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