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Monday, June 22, 2009

अब न मौज न मस्ती : बस ई एम आई उतारो



दरअसल कर्ज लेकर घी पीने के फेर में आम आदमी पर ईएमआई का बोझ कुछ ऐसा बढ़ गया है कि उसका 60 फीसदी वेतन इस मद में कट जाता है, जबकि दस साल पहले 1999 में इस तरह के खर्चे बमुश्किल 30 फीसदी थे।
25,000 रुपये प्रति महीने के वेतन ढांचे को आधार मानें तो घर पहुंचने वाली रकम 10,000 रुपये से अधिक नहीं होती। बाकी 15,000 रुपये की रकम में से 6,000 मकान की ईएमआई, 5,000 ऑटो लोन और 1,500 रुपये अन्य शौकिया वस्तुओं पर खर्च हो जाते हैं। बाकी बचे 2,500 रुपये बीमा की किश्त चुकाने में चले जाते हैं।'
इन क्षेत्रों के लोगों को ईएमआई की मार सबसे ज्यादा सहनी पड़ रही है --सूचना प्रौद्योगिकी, ऑटोमोबाइल, होटल, नागरिक उड्डयन, मैन्युफैक्चरिंग, जेम्स ऐंड जूलरी और टैक्सटाइल जैसे क्षेत्र शामिल हैं।
नौकरीपेशा लोगों पर बैंक की ईएमआई के अलावा ऑफिस के कर्ज की रकम चुकाने का बोझ भी कम नहीं है। 30 फीसदी पेशेवरों ने बताया कि वे महीने में 4,000 से 5,000 रुपये ऑफिस से एडवांस में लिए गए कर्ज को चुकाने पर खर्च करते हैं। ये कर्ज सामान्य तौर पर मकान की मरम्मत, शिक्षा या शादी के लिए लिए जाते हैं। हालांकि 50 फीसदी कर्मचारियों ने यही बताया कि उनके हाथ में आने वाला वेतन 40 फीसदी से ऊपर नहीं होता। 25,000 में से जो 10,000 रुपये हाथ आते हैं उन्हीं से खाना, फोन, अन्य सुविधाएं, डॉक्टर और शिक्षा आदि का खर्च निकालना होता है।
पिछले 9 साल में इस तरह के कर्मचारियों के वेतन में औसतन 30 फीसदी की वृद्धि हुई है, लेकिन हाथ में आने वाला वेतन कहीं ज्यादा गिरा है। सरकारी कर्मचारियों की तुलना में निजी क्षेत्र के कर्मचारियों पर ईएमआई की ज्यादा मार पड़ रही है। 42 फीसदी कर्मचारियों ने कहा कि वे 40 से 50 फीसदी वेतन ईएमआई पर खर्च कर रहे हैं। ऐसे में उनके पास लाइफस्टाइल खर्च में कटौती करने के अलावा कोई चारा नहीं है। ऐसे परिवार बाहर जाकर खाना कम ही खाते हैं। फोन पर बातचीत फटाफट निपटाते हैं। इसके अलावा शौकिया खरीदारी और सैर-सपाटे से भी तौबा करते हैं।

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