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Wednesday, February 25, 2009

भगवान शिव के दिव्य अवतरण का पर्व महाशिवरात्रि

भगवान शिव के दिव्य अवतरण का पर्व महाशिवरात्रि

गाजियाबाद। भगवान सदाशिवको अत्यधिक प्रिय शिवरात्रि शिवचिन,उपवास जागरण और शिवभिषेकका विशेष महत्व है। ईशान संहिता में भगवान शंकर देवी पार्वती से कहते हैं, फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है। जो व्यक्ति उस दिन उपवास करता है, वह मुझे प्रसन्न कर लेता है। मैं अभिषेक, वस्त्र, धूप, अर्चन तथा पुष्पादिके समर्पण से उतना प्रसन्न नहीं होता जितना व्रतोपवाससे होता हूं।
इसी संहिता में कहा गया है कि फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भगवान शंकर करोडों सूर्यो के समान प्रभा वाले लिंग रूप में प्रकट हुए थे। प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि और फाल्गुन मास की इस तिथि को महाशिवरात्रि कहा जाता है। श्रावण मास पवित्र माना जाता है इसलिए उस मास की कृष्ण चतुर्दशी सामान्य से ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जाती है।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को चन्द्रमा सूर्य के समीप रहता है। उसी समय जीव रूपी चंद्रमा का शिव रूपी सूर्य से सामीप्य होता है। यही महाशिवरात्रि है। महाशिवरात्रि शिवजी के दिव्य अवतरण का पर्व है। इस दिन चार प्रहरों में कुल चार बार पूजा का विधान है।
ब्रह्माजी को सृष्टि रचने के बाद जब कुछ अभिमान हो गया तो वह स्वयं को श्रेष्ठ समझते हुए भगवान विष्णु से भिड गए। इस संघर्ष में मध्यस्थता करने के लिए भगवान शंकर वहां अनादि अनंत ज्योतिर्मय स्तंभ अर्थात ज्योतिर्लिगमें में लीन हो गए।
यह शिवलिंगनिष्कल ब्रह्म,निराकरब्रह्मका प्रतीक है। श्री विष्णु और श्रीब्रह्माजीने उस लिंग की पूजा अर्चना की। यह लिंग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को प्रकट हुआ। तभी से लिंगपूजानिरन्तर चली आ रही है। श्रीविष्णुऔर श्रीब्रह्माजीने कहा, महाराज जब हम दोनों लिंग के आदि-अंत का पता न लगा सके तो मानव आपकी पूजा कैसे करेगा।
इस पर भगवान शिव द्वादशज्योतिर्लिगमें विभक्त हो गए। महाशिवरात्रि का यही रहस्य है। वाराणसी वन में एक भील रहता था। उसका नाम गुरूद्रुहथा। उसका कुटुम्ब बडा था। वह बलवान और क्रूर था। वह प्रतिदिन वन में जाकर मृगों को मारता और नाना प्रकार की चोरियां करता था। शुभकारकमहाशिवरात्रि के दिन उस भील के माता-पिता, पत्नी और बच्चों ने भूख से पीडित होकर भोजन की याचना की। वह तुरंत धनुष लेकर मृगों के शिकार के लिए वन में घूमने लगा। उस दिन उसे कुछ भी शिकार नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। वह सोचने लगा अब मैं क्या करूं, कहां जाऊं , माता-पिता, पत्नी, बच्चों की क्या दशा होगी। कुछ लेकर ही घर जाना चाहिए। यह सोचकर वह एक जलाशय के समीप पहुंचा कि रात्रि में कोई न कोई जीव यहां पानी पीने अवश्य आएगा। उसी को मारकर घर ले जाऊंगा। वह व्याघकिनारे पर स्थित बिल्ववृक्षपर चढ गया। पीने के लिए कमर में बंधी तूम्बी में जल भरकर बैठ गया। भूख-प्यास से व्याकुल वह शिकार की चिंता में बैठा रहा।
रात्रि के प्रथम प्रहर में एक प्यासी हिरणीवहां आई। उसको देखकर व्याघको अति हर्ष हुआ। उसका वध करने के लिए उसने अपने धनुष पर एक बाण का संघानकिया। ऐसा करते हुए उसके हाथ के धक्के से थोडा सा जल और बिल्वपत्रटूटकर नीचे गिर पडे। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंगथा। वह जल और बिल्वपत्रशिवलिंगपर गिर पडा। उस जल और बिल्वपत्रसे प्रथम प्रहर की शिवपूजासम्पन्न हो गई। खडखडाहट की ध्वनि से हिरणीने भय से ऊपर की ओर देखा। व्याघको देखते ही मृत्युभयसे व्याकुल होकर वह बोली, व्याघ,तुम क्या चाहते हो, सच सच बताओ। व्याघने कहा, मेरे कुटुम्ब के लोक भूखे हैं, अत:तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊंगा। मृगी बोली, भील मेरे मांस से तुमको, तुम्हारे कुटुम्ब को सुख होगा। इस अनर्थकारी शरीर के लिए इससे अधिक महान पुण्य का कार्य भला और क्या हो सकता है। परन्तु इस समय मेरे बच्चे आश्रम में मेरी बाट जोह रहे होंगे। मैं उन्हें अपनी बहरअथवा स्वामी को सौंपकर लौट आऊंगी। मृगी के शपथ खाने पर बडी मुश्किल से व्याघने उसे छोड दिया।
द्वितीय प्रहर में उस हिरिणीकी बहन उसी की राह देखती हुई ढूंढती हुई जल पीने वहां आ गई। व्याघने उसे देखकर बाण को तरकश से खींचा। ऐसा करते समय पुन:पहले की भांति शिवलिंगपर जल और बिल्वपत्रगिर गए। इस प्रकार दूसरे प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गई।
मृगी ने पूछा, व्याघयह क्या करते हो। व्याघने पूर्ववत उत्तरदिया। मैं अपने भूखे कुटुम्ब को तृप्त करने के लिए तुझे मारूंगा। मृगी ने कहा, मेरे छोटे छोटे बच्चे घर में हैं। अत:मैं उन्हें अपने स्वामी को सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊंगी। मैं वचन देती हूं। व्याघने उसे भी छोड दिया। व्याघका दूसरा प्रहर भी जागते-जागते बीत गया। इतने में ही एक बडा हृष्ट, पुष्ट हिरणमृगी को ढूंढता हुआ आया। व्याघके बाण चढाने पर पुन:कुछ जल व बिल्वपत्रशिवलिंगपर गिरे। अब तीसरे प्रहर की पूजा भी हो गई। मृग ने आवाज से चौंककर व्याघकी ओर देखा और पूछा क्या करते हो। व्याघने कहा, तुम्हारा वध करूंगा। हिरणने कहा कि मेरे बच्चे भूखे हैं। मैं बच्चों को उनकी माता को सौंपकर तथा उनको धैर्य बंधाकर शीघ्र ही यहां लौट आऊंगा। व्याघबोला कि जो जो यहां आए वे सब तुम्हारी ही तरह बातें तथा प्रतिज्ञा कर चले गए परन्तु अभी तक नहीं लौटे। शपथ खाने पर उसने हिरणको भी छोड दिया। मृग-मृगी सब अपने स्थान पर मिले। तीनों प्रतिज्ञाबद्ध थे। अत:तीनों जाने के लिए हठ करने लगे। उन्होंने बच्चों को अपने पडोसियों को सौंप दिया तथा तीनों चल पडे। उन्हें जाते देख बच्चे भी भागकर पीछे-पीछे चल दिए। उन सबको एक साथ आया देख व्याघको अति हर्ष हुआ। उसने तरकश से बाण खींचा जिससे पुन:जल व बिल्वपत्रशिवलिंगपर गिर पडे। इस प्रकार चौथे प्रहर पूजा भी सम्पन्न हो गई।
रात्रिभर शिकार की चिन्ता में व्याघनिर्जल, भोजनरहितजागरण करता रहा। शिवजी का रंचमात्र भी चिन्तन नहीं किया। चारों प्रहर की पूजा अनजाने में स्वत.ही हो गई। उस दिन महाशिवरात्रि थी। जिसके प्रभाव से व्याघके सम्पूर्ण पाप तत्काल भस्म हो गए।
इतने में ही मृग और दोनों मृगियोंबोल उठे, व्याघशिरोमणेशीघ्र कृपाकरहमारे शरीरों को सार्थक करो और अपने कुटुम्ब व बच्चों को तृप्त करो। व्याघको बडा विस्मय हुआ। ये मृग ज्ञानहीनपशु होने पर भी धन्य हैं, परोपकारी हैं और प्रतिज्ञापालकहैं। मैं मनुष्य होकर भी जीवनभरहिंसा, हत्या और पाप कर अपने कुटुम्ब का पालन करता रहा। मैंने जीव हत्या कर उदरपूर्तिकी। अत:मेरे जीवन को धिक्कार है। व्याघने बाण को रोक लिया और कहा, श्रेष्ठ मृगों तुम सब जाओ। तुम्हारा जीवन धन्य है।
व्याघके ऐसा कहने पर तुरंत भगवान् शंकर शिवलिंगसे प्रकट हो गए और उसके शरीर को स्पर्श कर प्रेम से कहा, वर मांगो। मैंने सब कुछ पा लिया। यह कहते हुए व्याघउनके चरणों में गिर पडा। श्री शिवजी ने प्रसन्न होकर उसका गुह नाम रख दिया और वरदान दिया कि भगवान राम एक दिन अवश्य ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। वही व्याघश्रृंगवेरपुरमें निषादराजगुह बना जिसने भगवान राम का आतिथ्य किया। वे सब मृग भगवान शंकर का दर्शन कर मृगयोनिसे मुक्त हो गए। शापमुक्त हो विमान से दिव्य धाम को चले गए।
तबसे अर्बुद पर्वत पर भगवान शिव व्याधेश्वरके नाम से प्रसिद्ध हुए। दर्शन-पूजन करने पर वे तत्काल मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। यह महाशिवरात्रि व्रत व्रतराजके नाम से विख्यात है। यह शिवरात्रि यमराज के शासन को मिटाने वाली है और शिवलोक को देने वाली है। शास्त्रोक्त विधि से जो इसका जागरण सहित उपवास करेंगे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। शिवरात्रि के समान पाप और भय मिटाने वाला दूसरा व्रत नहीं है। इसके करने मात्र से सब पापों का क्षय हो जाता है।

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