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Tuesday, January 20, 2009

THINK
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मंदिरों में जाते है,इसलिए नहीं जाते की भगवान का ज्ञान हो गया, की उस से भी hello, hi करनी चाहिए|
वहा इसलिए जाते है की हमें हमारे, मुसीबत का पता चल गया, की हे भगवान अब हमारी रक्षा कर |
हम मांग को प्रार्थना कहते है,क्या प्रार्थना की? मैंने भगवान से ये माँगा, वो माँगा
हमें पता ही नहीं चलता की हम भगवान से मांग क्या रहे है??
जरुरत से ज्यादा संसार की वस्तुवे मांगना जहर मांगना है, और एक माँ अपने बच्चो को जहर कैसे दे देंगी?? उन्ही वस्तुओ में, इच्छाओ में जीव फस जाता है, फिर 84 का चक्कइस मांग वाली प्रार्थना में "मै" उपस्थित होता है, "मुझे दे दे" वहा वो भगवान को अपने से अलग जानता है, मांग पे जोर ज्यादा होता है|
प्रार्थना का मतलब निःस्वार्थता,प्रेम है और
"प्रेम गली अति साकरी, जा में दो न समाये" प्रेम में तो एक ही होता है, मांग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है|
मानव जीवन सिर्फ और सिर्फ, सदगुरु की शरण जाके, नामदान की दौलत प्राप्त करके, आत्मा का साक्षात्कार करने के लिये है
"सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावणहार."

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